Declaration

All the works are of a purely literary nature and are set on the fictional planet of Abracadabra. It has nothing to do with earthly affairs.

Thursday, December 27, 2012

सूनापन


रात घिर आई है। आवाज़ आती है तो बस दीवाल पर लटकी घड़ी की चलती हुई सूईंयो की जो ग्यारह का पड़ाव पार कर बारहवें की ओर निरंतर गति से बढ़ रही है। इस वक़्त सिर्फ वह खुद होता है अपने साथ। रात का बस यह कोना ही उसका अपना होता है। न इसमें सपनों की गुंजाईश होती है क्योंकि आँखें खुली होती है। न किसी से कोई मुद्दे पर फ़िज़ूल की बहस, न ही फोन का बजना, न बॉस की हुक्म की तामील करने की जद्दो-जहद, न किसी सीनियर से डांट फटकार का डर, न किसी प्रतिस्पर्धा की चाह। बस यही एक सवा घंटा वो चुरा पाता है इस कैलेण्डरनुमा जिंदगी से। बाकी का वक़्त तो टाइम टेबुल के अनुसार तय होता है चलता है और वक़्त कटता जाता है।

रात के उस कोने में कुछ तमन्नाएँ उसके पास आकर बैठने की कोशिश करती है। ऐसी तमन्नाएँ जो बेहद मासूम होती। बेवजह किलकारी मारते हुए उस छह-आठ महीने के बच्चे की तरह जिसे अपनी मुस्कान का कारण पता नहीं होता है फिर भी हँसता रहता है। पता नहीं किस संसार के बारे में वो सोच रहा होता है। बच्चे और दार्शनिक में कितना कम फ़र्क होता है उस समय मालूम पड़ता है। दार्शनिक संसार की निरर्थकता को समझता है इसलिए मुस्कुराता है, बच्चे को इस प्रसंग में जाने की ज़रुरत ही नहीं पड़ती। वह ऐसे ही हँसता है, शायद निरर्थकता के प्रश्न में जाना ही एक निरर्थक कार्य है, बच्चा यह समझ लेता है इसलिए इस दिमागी उल-जुलूल से बच जाता है।

रात के इस सूनेपन में एक अजीब सा सुकून मिलता है। उस सूनेपन में शब्दों के मेल-जोल और विचारों-भावनाओं की उठा-पटक का सहारा लेकर एक तिलिस्मी दुनिया को गढ़ने की मंशा पैदा होती है, फिर इसे साकार करने का प्रयत्न होता है। दुध्मुहें बच्चे को जिस तरह माँ की छातियों में गर्माहट, सुरक्षा और पोषण की अनुभूति होती है, ठीक उसी तरह वह लेखक बच्चा बन जाता है और शब्दों का अनंत महासागर उसकी माँ, जिसकी छातियों में वह निश्चल वात्सल्य का अनुभव करता है और जैसे बच्चा बड़ा होता जाता है उसी तरह उस लेखक का शब्द रुपी तिलिस्मी संसार भी फैलता जाता है। कई पात्रों का वह सृजन करता है, उसका भाग्य भी लिखता है, उसका अंत भी करता है। कभी-कभी दुनिया से विरक्ति के भी ख्याल आते लेकिन उसमें भी एक तरह की निरर्थकता का ही बोध होता है। शायद लिखना अपने चारों तरफ फैली निरर्थकता में अर्थ ढूंढने की कोशिश-मात्र है या फिर अपने सूनेपन में अर्थ तलाशने का जरिया।

यह बात आज तक उसको समझ नहीं आई थी इसलिए तलाश जारी थी। 

Monday, December 10, 2012

सलवटें (1) रोमा और राकेश


सूरज की एक हल्की सी किरण दूसरे और तीसरे परदे के बीच की हल्की सी सुराख़ से निकलते हुए रोमा की अधखुली हुई होठों की पंखुरियों पर पड़ी और थोडा फ़ैल गयी। होठों का गुलाबीपन सूरज की किरणों के पड़ते ही टेस लाल रंग का हो गया और धीरे धीरे वही किरण दाहिनी गाल की गोलाईयों को चूमते दाहिने कान से लगी सोने की चमकती बाली पर जैसे ही पड़ी रौशनी से पूरा चेहरा चमकने लगा। पलकों ने कुछ पलों के लिए एक दूसरे का साथ छोड़ा और आँखों के खुलते खुलते रोमा ने अंगराई ली, चेहरे पर बिखर आई लटों को समेटा, बेहद मुड़ी हुई साड़ी को कमर से कोंचा और अपने रंगे हुए पैरों को पलंग से उठाकर फर्श पर रखते चप्पलों को खोजने लगी।

पैरों में हवाई चप्पलों को डालते हुए रोमा धीरे धीरे बिस्तर से उठ गयी और सामने की ओर जाने को हुई। फिर अचानक पीछे को मुड़ी और नज़र जा कर टिक गयी उस नयी नीली चादर पर जिसमे बैगनी रंग का ख़ूबसूरत बॉर्डर था। बीच में झरने से बहते पानी का दृश्य था। रोमा ने देखा झरने वाली जगह पर कुछ सलवटें बन कर उभर आई थी। उत्सुकतावश गिनने लगी रोमा उन सलवटों को। यही कोई सात थीं। सलवटों के उभरने से ऐसा लग रहा था की झरनों से निकलती हुई कई धाराएँ बन गयी हो। और रोमा को लगा उसकी जिंदगी भी अब एक नयी धारा में मिल रही है। लेकिन जैसे ही बिछड़ने का समय आता है अपने अतीत से, बीते दिनों से जुडी घटनाएँ अन्तःपुर में हिल्लोरें मारने लगती है। रोमा को भी ऐसा ही अहसास हो रहा था।

उन सलवटों में नयी धारा की गंगोत्री तो थी ही लेकिन गंगोत्री के पहले भी तो गंगा का अस्तित्व होता है। भले ही दिखाई नहीं देता है किसी को। तो रोमा का भी अस्तित्व था राकेश से मिलने से पहले। हाँ उसका बचपन एकदम से बालहंस, नंदन, चंदामामा, चम्पक की कहानियों जैसा नहीं था। पर कुछ बेशकीमती यादें तो थी ही उसकी अपनी वाली पोटली में जिसे वह घर के रोशनदान के बगल वाली खोह में छोड़ कर आना चाह रही थी पर आखिरी वक्त में जब रोमा घर छोड़ विदा हो रही थी तब वह पोटली खोह से निकल कर फूलों से सजी कार के पिछली सीट पर बैठी रोमा के गोद में गिर आई थी और फिर रोमा ने उसे अपने पल्लू में बांध लिया था। निचले मध्यम वर्ग से वास्ता और फिर बचपन में ही लकीर खींच दी गयी थी जिदगी की। स्कूल, कॉलेज, यूनिवर्सिटी फिर मल्टी नेशनल कंपनी में १५ हज़ार की पगार पर नौकरी। राकेश से वहीँ मुलाकात हुई थी पहली बार जब ऑफिस में अपने पहले ही दिन १।१५ मिनट पर कैंटीन में खाने का प्लेट थामे इधर उधर देख रही थी एक खाली सीट के लिए। राकेश ने हाथ दिखाकर बुलाया था और एडजस्ट कर उसे अपने ही पास बिठाया था। फिर वही स्टैण्डर्ड स्टोरी। ऑफिस के बाद काफी हॉउस, फिर अगले महीने राज मल्टीप्लेक्स में रोमांटिक मूवी। दस महीनों तक बाईक पर साथ आना-जाना। करीब एक साल बाद दोनों ने अपने परिवारों को बताया। शुरुआती ना-नुकुर के बाद मान गए। दो महीने बाद इनगेजमेंट और पांचवे महीने में शादी। पिछली रात उनकी पहली रात थी एक दूसरे के साथ। उनकी सुहागरात थी।

और अब सुबह उन सलवटों को देख रही थी रोमा। नहीं सब नार्मल बात थी। उसने अपने पापा के घर को छोड़ दिया था। बचपन को छोड़ दिया था। घर के सामने वाली उस पीपल के पेड़ को छोड़ दिया जिसके दाहिनी टहनी पर उस छोटी सी चिड़िया ने पहली बार घोंसला बनाया था लेकिन पिछली जुलाई में जब तेज़ हवा में वह गिर गया था, तब रोमा ने ही उस घोंसले को पूरा उड़ने से बचाया था। और फिर उनकी दोस्ती हो गयी थी। और फिर निम्मी थी जिसके साथ गर्मियों की छुट्टियों में बैठकर सोनू से मांगे हुए टिकोले खाती। वह मंटू भी तो था जो उसकी ही कक्षा में पढ़ता था और जिसके साथ पूरे दो साल तक नैन-मटक्का चला था। फिर टीचर से किसी ने शिकायत कर दी और उसे काफी सुनाया था सुनैना मैडम ने। फिर एकाएक सब बंद हो गया था। उन सलवटों में न जाने क्या क्या दिख रहा था रोमा को। दुनिया के लिए सब नार्मल है। बोलते हैं अब औरत को अब उसका हक़ मिल रहा है। लेकिन अभी बहुत सी चीज़ें शायद नार्मल है।

रोमा राकेश को प्यार करती थी। इसलिए जब शादी के बाद उसे अपने घर में रहने की बात कही थी तो यह तो नार्मल ही लगा था उसे भी और सब को भी। उस समय रोमा ने उन सलवटों को नहीं देखा था। अब देख रही थी। धीरे धीरे प्रकाश फ़ैल रहा था पूरे कमरे में। राकेश ने आंखे खोली और रोमा को पास बुलाया। मुस्कुराती हुई रोमा पास गयी और उसने अपने आगोश में ले लिया उसे। क्विक मॉर्निंग लव मेकिंग सेशन के बाद रोमा छिटक कर एक तरफ हो गयी। राकेश ने कहा, “चाय मिलेगी डार्लिंग?”।  “अभी लाती हूँ”, रोमा कहते-कहते साड़ी को कमर से कोंचते सर को पल्लू से ढकते हुए किचन की ओर बढ़ गयी।

प्यार के बाद चाय यह नार्मल बात है।

Thursday, December 6, 2012

कुछ पल


बारिश ने जेठ की तपिश को कम कर दिया था और चाय पीने जैसी रोजमर्रा वाली बात में भी अब नयापन लग रहा था बालकोनी में राकेश बाबू खुद से बनाई फीकी चाय का ही लुत्फ़ उठा रहे थे। सामने इन्द्रधनुष की रेखाओं ने आसमान को रंगों से भर दिया था। ऐसे मौसम में उम्र एक इस पड़ाव पर आज अचानक कुछ बीते दिनों की स्मृतियाँ यूं ही उलटफेर करने लगी थी राकेश के मानसपटल पर। ज़ेहन में झांक-झांक कर देखा, ताक-ताक कर देखा। ऐसा लग रहा था उन इन्द्रधनुषी रेखाओं से घिरे आकाश में किसी को खोज रहे हों लेकिन याद नहीं आ रहा था किसको। रेखाओं को एकटक देखते देखते धीरे धीरे एक चेहरा उभरता नज़र आया। ऐसा लग रहा था आकाश ने ही एक स्पष्ट चेहरे का रूप ले लिया हो और चेहरे की उभरती रेखाएं यकायक उसका ध्यान खींच रही हों। 

समय ने गोता लगाया और सुई पीछे चली गयी उन दिनों पर जब सरकारी नौकरी की शुरुआत की थी राकेश बाबू ने। इसके लक्षण थोड़े ही दिनों में दिखने लगे थे। पेट के ऊपर कुछ उठाव महसूस हुआ था। मामूली शब्दों में कहें तो जनाब मोटे हो रहे थे। ऑफिस के बाद खालीपन को भरने के लिए कुछ नुस्खों को आजमाया करते थे उन दिनों। उनमे से एक था टीवी पर बहसों को देखना। सब ठीक चल रहा था जब तक उसने इस बात पर गौर नहीं किया की बोलने वाला दिखता कैसा है। मामूली शब्दों में कहें तो चेहरे की जगह सिर्फ दलीलों पर ध्यान देते थे।

फिर कुछ बदलाव हुआ एक दिन। उस न्यूज़ प्रोग्राम को कितने महीनों से देखता था पर न्यूज़ एंकर पर गौर नहीं किया था तब तक। होगी कोई 35 - 36 वर्ष की महिला। एक दिन अचानक उसने न्यूज़ एंकर के चेहरे पर उभरती रेखाओं को देखा। फिर धीरे धीरे गौर करना शुरू किया था। हालाँकि वो कोई कलाकार-वलाकार नहीं था। इसलिए रेखाओं का भी कोई ज्यादा ज्ञान या समझ नहीं थी। लेकिन उन रेखाओं में खासा दिलचस्पी बढ़ आई थी। आज वो न्यूज़ नहीं कुछ और ही देख रहा था। चेहरे पर ही नज़र टिकी थी। पता नहीं किस मुद्दे पर बहस हो रही थी, उसे हल्का-हल्का सुनाई दे रहा था, जैसे दूर से आती कोई आवाज़ हो पर समझ नहीं पा रहा था कुछ भी। 

उसे विश्लेषण और विशेष टिपण्णी दोनों का ही शौक था। लग रहा था उस चेहरे का ही विश्लेषण करने वाले थे जनाब। चेहरे से नज़र नहीं हट रही थी। गाल के ढलान से उभरती वो रेखा मुख को एक मनमोहक रूप दे रही थी। गाल के ढलान वाली रेखा से नज़र हटी तो जाकर रुक गयी उन सुर्ख लाल होठों पर जो दलीलों को आगे बढाने के लिए एक दूसरे से अलग होते फिर आपस में मिल जाते। विशेष टिपण्णी के लिए उपमाओं को तलाशने लगा। कामायनी तलाशा, कालिदास की मदद ली, पर सब फेल। उन सुर्ख लाल होठों की कोई उपमा मिली ही नहीं। और यहाँ पर भी रेखाओं का अनुपात बड़ा ही बेजोड़ जान पड़ता था। होठों का टेस लाल रंग और गालों पर फैला हल्का सा गुलाबीपन। अजब सा सम्मिश्रण। होठों के साथ ही हिलते कानों से लटकते प्यारे-प्यारे झुमके मानों चार चाँद लगाने का काम कर रहे हों। फिर सफ़ेद कुरते के ऊपर गहरे गुलाबी रंग के धागे से की हुई महीन कसीदाकारी के द्वारा बने हुए छोटे छोटे अरहुल के फूल। पीछे खुले हुए लहराते बाल। ऊपर से सफ़ेद कुरते को ढकता नीला ब्लेज़र, ऐसा लगता मानों जैसा नीला आकाश या नीला समंदर अथाह सौन्दर्य अपने अन्दर समेटे रखा हुआ हो और धीरे धीरे उस सौन्दर्य को बिखेरकर मन मोह रहा हो। ऐसा महसूस हुआ की आज तक वह दुनिया के ख़ूबसूरत रंगों से महरूम रहा है और आज सामने उस छोटे से पल में इतनी खूबसूरती देखकर थोडा हैरान ज़रूर था पर एक सुकून भी था।

कई ख्याल आये। कई ख्याल गए। सरकारें बदली, राजनीती करने का तरीका बदला। कई महीने-मौसम आये, चले गए। लेकिन वो अक्सर उसी समय टीवी पर आती और वह सब काम छोड़ कर वहां बैठ जाते। न्यूज़ सुनने के लिए और थोडा उसे देखने के लिए भी। भैया राकेश बाबू लड़के तो थे नहीं की लड़कपन में प्यार-व्यार के चोंचलों पर दिमाग दौड़ाते। पर हाँ एक किस्म का अपनापन ज़रूर लगता था। आत्मीयता की अनुभूति होती थी। जीवन की आपाधापी से दूर खुद के साथ बिताया जाने वाला बस यही छोटा सा लम्हा उसका अपना होता। उसकी छोटी छोटी हरकतों पर खुश हो जाना, उसकी हलकी सी मुस्कराहट के लिए पूरे घंटे इंतज़ार करना और फिर दिन भर इंतज़ार करना की कब वो फिर आएगी। कभी कभी वो नहीं आती टीवी पर तो पहले तो थोड़े समय के लिए बेचैन हो जाता फिर खुद को समझा लेता था की हो सकता है कुछ ज़रूरी काम आ गया हो या छुट्टी पर हो।

फिर कई दिनों तक वो नहीं आई अपने निर्धारित समय पर। राकेश बाबू इंतज़ार करते रहे, फिर टीवी देखना ही छोड़ दिया।

Thursday, November 8, 2012

अरमान

समंदर का किनारा। जाने कितने लोग। अलग अलग तरह के। बच्चे, युगल जोड़े, उम्रदराज़, बूढ़े, सभी वराइटी के मौजूद थे। मज़ेदार नज़ारा था चारों तरफ। समंदर की लहरें दौड़ कर आती, एक शोर उमड़ता, कोई किसी को पकड़ता, कोई लहरों के आवेग से किनारे की तरफ पटकाता। कुछ भीगने से बचने के लिए पीछे की ओर दौड़ते।

अनगिनत लोगों को देख मेरे ज़ेहन में सिर्फ एक शब्द धीरे-धीरे उभर रहा था। मुझे खुद भी इसका एहसास नहीं था। एक जोड़े पर जाकर निगाह थोड़े देर तक टिकी। पहले दोनों नहा रहे थे। हल्की -फुल्की शरारतों से मन बहला रहे थे। लड़का उस पर पानी के छींटे फेंकता को लड़की भी कहाँ हार मानने वाली थी। वो भी उस पर पानी बरसाती लेकिन जब लम्बा वेग जब आता तो उसी से लिपट जाती। उस समय लड़का उसे चिढ़ाता। फिर अन्दर गहरे पानी में जाकर एक दूसरे की फोटो खींचते। बड़ा ही मनोरंजक खेल लग रहा था। 

मन बहलाने के लिए रेत के टीले बनाने की कोशिश करने लगा। कुछ भी बनाने में असफल फिर यकायक ध्यान उसी युगल जोड़े की ओर गया। इस बार दोनों ऊंट पर थे। लड़की आगे थी और लड़का उसके पीछे। लड़की की हंसी से पूरा माहौल गूंज रहा था। लग रहा था वो दोनों आज दिल के सारे अरमान पूरे कर लेना चाहते थे। अरे हाँ यही तो वो शब्द था जो मैं तलाश रहा था। अरमान। चलो मिल गया।

अरमान, क्या इसी को पूरा करने की तलाश में सभी लोग उस समंदर के तट पर आये थे? क्या वो जोड़ा भी अपने अरमान पूरे करने आया था? हो सकता है हनीमून पर आये हों। जीवन की आपा-धापी शुरू होने से पहले एक दूसरे के संग कुछ वक्त बिताने, साथ में मस्ती करने, ख़ुशी के कुछ अनछुए, बेदाग़, बेलगाम पलों में मौजूद रूहानियत को बटोरने।

जिंदगी वाले नाटक में अगर समंदर के किनारे वाला ही सीन होता तो बात और होती। फिर तो अरमानों का ही बसंत चलता रहता और जाड़े की ठिठुरन और गर्मी की तपिश कहीं होती ही नहीं। माना की मौसम बदलेगा। उन जोड़ों के बीच खिट-पिट होगी। लेकिन अभी से क्यूँ उसके बारे में सोचें? अभी तो मस्ती का टाइम हैं। बसंत का मज़ा और अरमानों की लड़ी बस यही, बाकी सब बाद में।

Monday, July 2, 2012

पढ़े-लिखे लोग (4) जात/ रोहन


रामनरेश चचा पढ़े लिखे थे। १९८० में   ग्रेजुएट हो गए थे। मैं उषा-काल सैर के लिए नदी की ओर निकला।  दूर सामने बरगद का एक पेड़ था। सामने एक लटकी हुई आकृति नज़र आई। विक्रम बेताल की याद गयी। पास गया तो देखा रोहन लटका हुआ था। मैं चिल्लाया। आस -पास के लोग तुरंत जुट गए। रोहन को लटका देख मुहं बिचका सब अपने रस्ते हो लिए। लगता था कुछ हुआ ही नहीं है। बड़ी मशक्कत से उसकी ठंडी पर चुकी लाश को उतारा। हट्टा-कट्टा शरीर, चौड़ा सीना, जवानी पूरे जोश में थी। सिर्फ एक गलती हो गयी। गाँव के मुखिया की छोकरियन से नैन-मटक्का हो गया। रामनरेश चचा ही गाँव के मुखिया थे। ऊँचे जात के थे और मूंछों पर हमेशा ताव देकर जताते रहते थे। रोहन बैकवर्ड था और एक फारवर्ड की लड़की से इश्कबाजी करने की जुर्रत की। इसी बरगद की छाँव में जाने कब उनका प्यार जवान हो गया। दोनों ने सोचा शादी कर लें। बबिता को अपने पापा रामनरेश बाबू पर पूरा भरोसा था। आखिर पढ़े लिखे जो थे। एक रात ऐसे ही मजाक में कहा ,"मैं शादी करना चाहती हूँ।" "किससे?", रामनरेश बाबू ने पूछा। "है कोई",बोल के बात को टाल दिया। बाद में पता कराया तो रोहन का नाम सामने आया। बड़ों-बुज़र्गों के बीच सलाह-मशविरा हुआ। सबने बोला मार देते हैं, सभी के लिए उदाहरण बन जायेगा। तब किसी नीच जात की मजाल नहीं की हमारी लड़कियों की तरफ कभी आँख उठाकर देखे। रात को गुमराह कर नदी के तट पर ले गए। पहले लाठियों से मारा। जब अधमरा हो गया तो उसी बरगद के पेड़ से लटका कर फांसी लगा दी।

रामनरेश चचा पढ़े लिखे लोग थे।

Saturday, June 30, 2012

पढ़े-लिखे लोग (3) गुलाबी स्वेटर/ तमन्ना

राम बाबू पड़े-लिखे थे। इनकम टैक्स विभाग में ऑफिसर थे। पत्नी कुसुम पेट से थी। गोलाई को देख कर लगा तीसरा महीना चल रहा होगा। मई की इस दोपहरी में उधर से निकलते हुए कुसुम भौजी को एक गुलाबी स्वेटर बुनते देख अनायास ही पूछा, “भौजी , इ किसके लिए गुलाबी स्वेटर बुन रही हो?” “तमन्ना के लिए”, बोलते हुए एक मीठी सी मुस्कान भौजी के होठों पर फ़ैल गयी। मैं थोड़ा अचकचाया। फिर भी पूछा, “कौन तमन्ना”? भौजी गोलाई की ओर इशारा कर बोली, “तीसरा महीना चल रहा है। दिसम्बर में तमन्ना आ जायेगी ओर उसे सर्दी में स्वेटर तो चाहिए होगा न।” भौजी से मिठाई खिलाने बोल आगे निकल गया। कई दिन बीत गए। एक दिन भौजी के घर की ओर से ही निकल रहा था, सोचा हाल-चाल पूछता चलूँ। देखा भौजी खटिया पर सोयी हुई थी। मुझे देख अनमने ढंग से उठ खटिये पर बैठ गयी। “भौजी कैसी हो? तमन्ना ने अब तो पेट में उधम मचाना शुरू कर दिया होगा?” भौजी को जैसे सांप सूंघ गया हो। एक दम चुप थी। मेरी नजर तमन्ना की ओर गयी। कुछ अटपटा सा लगा। गोलाई अब सपाट थी। मेरा दिमाग झंनाया। अचानक भौजी फूट-फूट कर रोने लगी। मैं सब समझ गया। भौजी सिर्फ इतना बोली, “गिरवा दिया, राम बाबू को लल्ला चाहिए था।” मैं निकलने को हुआ। तभी भौजी ने एक मिनट रुकने को कहा। धीरे-धीरे उठकर अंदर गयी। हाथ में वही अध-बुना गुलाबी स्वेटर था। कहा, “जाते-जाते इसे पोखरा में फेंकते आइयेगा, तमन्ना को अब सर्दी कभी नहीं लगेगी।”

राम बाबू पड़े-लिखे लोग थे।

पढ़े-लिखे लोग (2) एम.बी.ए./ मीता


मीता पढ़ी-लिखी थी। कभी कभार सोशल-वर्कमें भी इंटरेस्ट लेती थी।  प्लेसमेंट की दौड़ शुरू हो चुकी थी। दुनिया की जानी-मानी तेल की एक कंपनी का प्रोसेस चल रहा था। दस राउंड की परीक्षा के बाद मीता सफलहुई थी। अब मीता एक मोटे पैकेजके साथ उस तेल की कंपनी का एक हिस्सा बन गयी थी। शायद उसे नहीं पता था इस तेल कंपनी की लंबी दास्तान। या शायद उसने ज़रूरी नहीं समझा इस बात को जानने की। अब करियरकी दौड़ में आत्मा की आवाज़ जैसी फालतू चीज़ों पर ध्यान देना कितनी दकियानूसी सोंच है। इसी तेल कंपनी ने एशिया, अफ्रीका, अमरीका के कितने देशों में क्या-क्या गुल खिलाये हैं। शायद उसे केन सारु विवा की बुलंद आवाज़ नहीं सुनाई दी। शायद इकुएडोर, नाइजीरिया, इराक, जैसे कितने ही देशों के अवाम की चीखें आई-फोन के इयर-फोनके लगे होने के कारण कानों की परत को नहीं भेद पाए। अब मीता ही इतना क्यूँ सोचे, क्या उसने पूरी दुनिया का ठेका लिए हुए है। अब अपने मोहन को देख लो। भारत की सबसे बड़ी सिगरेट कंपनी के लिए काम करता है ठेठ भाषा में बोले तो कैंसर बेचता है पर उसकी चौड़ाई  तो देखो। या अपने समर भाई को ही देख लो। गोरों के लिए अफ्रीका को लूटने का काम आसान कर रहा है। साम्राज्यवाद खत्म हो गया है। लोग ऐसा बोलते हैं। अरे भाई, अब गोरों को खुद अफ्रीका जाकर अपने ही हाथों से लूटने का (गन्दा) काम करने की क्या ज़रूरत है जब भारत की एम.बी.ए. की फैक्ट्रियों में ग्रेजुएट थोक के भाव निकल रहे हैं। चलो अब मीता भी उस विरासत को आगे बढ़ाएगी, कंपनी को मुनाफा देगी, तभी तो ३६० डिग्री फीडबैक मे एक्स्ल्लेंट मिलेगा। वैसे कहते हैं न इश्क ओर जंग में तो सब जायज़ है ओर यह जिंदगी भी तो किसी जंग से कम तो नहीं। सब चलता है। सोचना सिर्फ सनकियों का काम है। चलो आगे चलो। करियर वाली फिल्म शुरू हो गयी। दिमाग  लगा सोचने बैठ गया तो फिल्म आगे निकल जायेगी। अरे दौड़ो भाई। अरे आप नहीं दौड़ सकते तो हट जाईये न।
मीता ओर मोहन ओर उनकी जमात पढ़े-लिखे लोग थे।


Monday, June 25, 2012

पढ़े-लिखे लोग (1) चोरी/ रतन बाबू


पढ़े-लिखे लोग
(काल्पनिक कथाएं या अफवाहों पर आधारित जिसका समाज से कोई लेना-देना नहीं)
1. चोरी/ रतन बाबू
रतन बाबू पढ़े-लिखे थे। रेलवे में दस साल से टी.टी. थे। अभी सुबह की गाड़ी से ही लौटे थे। रात भर कीकमाई’/’वसूलीसे फुले हुए पर्स को टेबल पर रख नहाने चले गए। कलुआ घर की सफाई कर रहा था। कमरे में कोई नहीं था। मालकिन रसोई में रतन बाबू के लिए नाश्ता बना रही थी। कलुआ की नज़र पर्स पर पड़ी। किसी को नहीं देख कर ख्याल आया क्यों पर्स को थोड़ा हल्का किया जाये। रतन बाबू को थोड़े ही पता चलेगा। तपाक से सौ-सौ के पांच नोट निकाल जल्दी-जल्दी सफाई कर वहां से छूमंतर हो गया। रतन बाबू नहाकर नाश्ता करने लगे। लड़का गया और जेब खर्च के लिए ची-पों शुरू कर दी। कुछ देर टालने के बाद हार मान  पर्स लाने को कहा। पैसे निकल कर देखा तो कुछ कम लगे। सोचा लगता है, मित्रों ने उन्हे बटाई में धोखा दिया। फोन करके राधे जी से पूछा की बटाई में कोई झोल तो  नहीं था। तो फिर पैसे गए कहाँ? रतन बाबू चिल्ला-चिल्ली कर पूरे मोहल्ले को जना दिया की चोरी हुई है। घर के बाहर भीड़ जमा हो गयी। तभी उधर से जोगी चाचा आते दिखे। कहा अभी-अभी कलुआ के पास ही जुए में बैठा था। उसके पास सौ-सौ के कड़क नोट थे। अब शक की कोई गुंजाईश नहीं थी। रतन बाबू दौड़े जुआ-खाने की ओर इस से पहले की कलुआरिएक्टकर पाता, रतन बाबू उसकी छाती पर थे। भीड़ ने कलुआ को सबक सिखाने की सोची। दो आदमियों ने कलुआ के हाथ को  पीछे बांध दिया और पेड़ से उल्टा लटका दिया। भीड़ को इस बात का क्लेश था की एकनीचजात के आदमी की ये मजाल कीफारवर्ड कास्टवाले के यहाँ चोरी कर ले। कुटाई चालू हो गयी। ये तो फारवर्ड वाले कीइज्ज़त’  की बात थी। जिसे मिल गया उसी ने हाथ साफ कर लिया। मुशहर टोला के लोग दूर से ही डब-डबाई आखों से मौत का ये सभ्य नाच देख रहे थे। घंटे भर की कुटाई के बाद कलुआ मर गया। रतन बाबू के कहने पर पेड़ से उतार नीचे फ़ेंक दिया गया उसकी लाश को मुसहर टोला की ओर जाने वाली सड़क पर। एक राहगीर ने पूछा, “भाई क्या हुआ?”, रतन बाबू ने सीना चौड़ा करके बोले, “साला, चोर था, मर गया साला।जैसे हीचोरशब्द ज़बान से छूटा, रतन बाबू को लगा, मांस का लोथड़ा अट्टहास कर रहा है।
रतन बाबू पढ़े-लिखे लोग थे।