Declaration

All the works are of a purely literary nature and are set on the fictional planet of Abracadabra. It has nothing to do with earthly affairs.

Thursday, December 27, 2012

सूनापन


रात घिर आई है। आवाज़ आती है तो बस दीवाल पर लटकी घड़ी की चलती हुई सूईंयो की जो ग्यारह का पड़ाव पार कर बारहवें की ओर निरंतर गति से बढ़ रही है। इस वक़्त सिर्फ वह खुद होता है अपने साथ। रात का बस यह कोना ही उसका अपना होता है। न इसमें सपनों की गुंजाईश होती है क्योंकि आँखें खुली होती है। न किसी से कोई मुद्दे पर फ़िज़ूल की बहस, न ही फोन का बजना, न बॉस की हुक्म की तामील करने की जद्दो-जहद, न किसी सीनियर से डांट फटकार का डर, न किसी प्रतिस्पर्धा की चाह। बस यही एक सवा घंटा वो चुरा पाता है इस कैलेण्डरनुमा जिंदगी से। बाकी का वक़्त तो टाइम टेबुल के अनुसार तय होता है चलता है और वक़्त कटता जाता है।

रात के उस कोने में कुछ तमन्नाएँ उसके पास आकर बैठने की कोशिश करती है। ऐसी तमन्नाएँ जो बेहद मासूम होती। बेवजह किलकारी मारते हुए उस छह-आठ महीने के बच्चे की तरह जिसे अपनी मुस्कान का कारण पता नहीं होता है फिर भी हँसता रहता है। पता नहीं किस संसार के बारे में वो सोच रहा होता है। बच्चे और दार्शनिक में कितना कम फ़र्क होता है उस समय मालूम पड़ता है। दार्शनिक संसार की निरर्थकता को समझता है इसलिए मुस्कुराता है, बच्चे को इस प्रसंग में जाने की ज़रुरत ही नहीं पड़ती। वह ऐसे ही हँसता है, शायद निरर्थकता के प्रश्न में जाना ही एक निरर्थक कार्य है, बच्चा यह समझ लेता है इसलिए इस दिमागी उल-जुलूल से बच जाता है।

रात के इस सूनेपन में एक अजीब सा सुकून मिलता है। उस सूनेपन में शब्दों के मेल-जोल और विचारों-भावनाओं की उठा-पटक का सहारा लेकर एक तिलिस्मी दुनिया को गढ़ने की मंशा पैदा होती है, फिर इसे साकार करने का प्रयत्न होता है। दुध्मुहें बच्चे को जिस तरह माँ की छातियों में गर्माहट, सुरक्षा और पोषण की अनुभूति होती है, ठीक उसी तरह वह लेखक बच्चा बन जाता है और शब्दों का अनंत महासागर उसकी माँ, जिसकी छातियों में वह निश्चल वात्सल्य का अनुभव करता है और जैसे बच्चा बड़ा होता जाता है उसी तरह उस लेखक का शब्द रुपी तिलिस्मी संसार भी फैलता जाता है। कई पात्रों का वह सृजन करता है, उसका भाग्य भी लिखता है, उसका अंत भी करता है। कभी-कभी दुनिया से विरक्ति के भी ख्याल आते लेकिन उसमें भी एक तरह की निरर्थकता का ही बोध होता है। शायद लिखना अपने चारों तरफ फैली निरर्थकता में अर्थ ढूंढने की कोशिश-मात्र है या फिर अपने सूनेपन में अर्थ तलाशने का जरिया।

यह बात आज तक उसको समझ नहीं आई थी इसलिए तलाश जारी थी। 

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