बारिश ने जेठ की तपिश को कम कर दिया था और चाय पीने जैसी
रोजमर्रा वाली बात में भी अब नयापन लग रहा था। बालकोनी में राकेश बाबू खुद से बनाई फीकी चाय
का ही लुत्फ़ उठा रहे थे। सामने इन्द्रधनुष की रेखाओं ने आसमान को रंगों से भर दिया
था। ऐसे मौसम में उम्र एक इस पड़ाव पर आज अचानक कुछ बीते दिनों की स्मृतियाँ यूं ही
उलटफेर करने लगी थी राकेश के मानसपटल पर। ज़ेहन में झांक-झांक कर देखा, ताक-ताक कर
देखा। ऐसा लग रहा था उन इन्द्रधनुषी रेखाओं से घिरे आकाश में किसी को खोज रहे हों
लेकिन याद नहीं आ रहा था किसको। रेखाओं को एकटक देखते देखते धीरे धीरे एक चेहरा
उभरता नज़र आया। ऐसा लग रहा था आकाश ने ही एक स्पष्ट चेहरे का रूप ले लिया हो और
चेहरे की उभरती रेखाएं यकायक उसका ध्यान खींच रही हों।
समय ने गोता लगाया और सुई पीछे चली गयी उन दिनों पर जब सरकारी
नौकरी की शुरुआत की थी राकेश बाबू ने। इसके लक्षण थोड़े ही दिनों में दिखने लगे थे।
पेट के ऊपर कुछ उठाव महसूस हुआ था। मामूली शब्दों में कहें तो जनाब मोटे हो रहे थे।
ऑफिस के बाद खालीपन को भरने के लिए कुछ नुस्खों को आजमाया करते थे उन दिनों। उनमे
से एक था टीवी पर बहसों को देखना। सब ठीक चल रहा था जब तक उसने इस बात पर गौर नहीं
किया की बोलने वाला दिखता कैसा है। मामूली शब्दों में कहें तो चेहरे की जगह सिर्फ दलीलों
पर ध्यान देते थे।
फिर कुछ बदलाव हुआ एक दिन। उस न्यूज़ प्रोग्राम को कितने
महीनों से देखता था पर न्यूज़ एंकर पर गौर नहीं किया था तब तक। होगी कोई 35 - 36 वर्ष की महिला। एक दिन अचानक उसने न्यूज़ एंकर के
चेहरे पर उभरती रेखाओं को देखा। फिर धीरे धीरे गौर करना शुरू किया था। हालाँकि वो
कोई कलाकार-वलाकार नहीं था। इसलिए रेखाओं का भी कोई ज्यादा ज्ञान या समझ नहीं थी। लेकिन
उन रेखाओं में खासा दिलचस्पी बढ़ आई थी। आज वो न्यूज़ नहीं कुछ और ही देख रहा था।
चेहरे पर ही नज़र टिकी थी। पता नहीं किस मुद्दे पर बहस हो रही थी, उसे हल्का-हल्का सुनाई
दे रहा था, जैसे दूर से आती कोई आवाज़ हो पर समझ नहीं पा रहा था कुछ भी।
उसे विश्लेषण और विशेष टिपण्णी दोनों का ही शौक था। लग रहा
था उस चेहरे का ही विश्लेषण करने वाले थे जनाब। चेहरे से नज़र नहीं हट रही थी। गाल
के ढलान से उभरती वो रेखा मुख को एक मनमोहक रूप दे रही थी। गाल के ढलान वाली रेखा
से नज़र हटी तो जाकर रुक गयी उन सुर्ख लाल होठों पर जो दलीलों को आगे बढाने के लिए
एक दूसरे से अलग होते फिर आपस में मिल जाते। विशेष टिपण्णी के लिए उपमाओं को
तलाशने लगा। कामायनी तलाशा, कालिदास की मदद ली, पर सब फेल। उन सुर्ख लाल होठों की
कोई उपमा मिली ही नहीं। और यहाँ पर भी रेखाओं का अनुपात बड़ा ही बेजोड़ जान पड़ता था।
होठों का टेस लाल रंग और गालों पर फैला हल्का सा गुलाबीपन। अजब सा सम्मिश्रण।
होठों के साथ ही हिलते कानों से लटकते प्यारे-प्यारे झुमके मानों चार चाँद लगाने का काम कर रहे हों। फिर सफ़ेद कुरते के ऊपर गहरे गुलाबी रंग के धागे से की हुई महीन कसीदाकारी
के द्वारा बने हुए छोटे छोटे अरहुल के फूल। पीछे खुले हुए लहराते बाल। ऊपर से सफ़ेद कुरते को ढकता नीला ब्लेज़र, ऐसा लगता मानों
जैसा नीला आकाश या नीला समंदर अथाह सौन्दर्य अपने अन्दर समेटे रखा हुआ हो और धीरे
धीरे उस सौन्दर्य को बिखेरकर मन मोह रहा हो। ऐसा महसूस हुआ की आज तक वह दुनिया के ख़ूबसूरत
रंगों से महरूम रहा है और आज सामने उस छोटे से पल में इतनी खूबसूरती देखकर थोडा
हैरान ज़रूर था पर एक सुकून भी था।
कई ख्याल आये। कई ख्याल गए। सरकारें बदली, राजनीती करने का
तरीका बदला। कई महीने-मौसम आये, चले गए। लेकिन वो अक्सर उसी समय टीवी पर आती और वह
सब काम छोड़ कर वहां बैठ जाते। न्यूज़ सुनने के लिए और थोडा उसे देखने के लिए भी। भैया
राकेश बाबू लड़के तो थे नहीं की लड़कपन में प्यार-व्यार के चोंचलों पर दिमाग दौड़ाते।
पर हाँ एक किस्म का अपनापन ज़रूर लगता था। आत्मीयता की अनुभूति होती थी। जीवन की
आपाधापी से दूर खुद के साथ बिताया जाने वाला बस यही छोटा सा लम्हा उसका अपना होता।
उसकी छोटी छोटी हरकतों पर खुश हो जाना, उसकी हलकी सी मुस्कराहट के लिए पूरे घंटे
इंतज़ार करना और फिर दिन भर इंतज़ार करना की कब वो फिर आएगी। कभी कभी वो नहीं आती
टीवी पर तो पहले तो थोड़े समय के लिए बेचैन हो जाता फिर खुद को समझा लेता था की हो
सकता है कुछ ज़रूरी काम आ गया हो या छुट्टी पर हो।
फिर कई दिनों तक वो नहीं आई अपने निर्धारित समय पर। राकेश
बाबू इंतज़ार करते रहे, फिर टीवी देखना ही छोड़ दिया।
No comments:
Post a Comment