मेरे दिल का दरवाज़ा
सीधे पेट से हो कर जाता है, इस बात का पता मुझे काफी देर से चला। हुआ यूँ की एक बार मैंने
उन लोगों की लिस्ट बनाने की कोशिश की जिन्हें मैं बेहद पसंद करता हूँ और अपने
स्वभाव के विपरीत उन घरों में मैं बार-बार जाना चाहूँगा। लिस्ट ज्यादा लम्बी नहीं
बन पाई, लेकिन कुछ बातें स्पष्ट हो गयी थी। लिस्ट में उन्ही लोगों के नाम ऊपर थे
जिन्होंने जिंदगी के किसी न किसी बीते दिन मुझे बढ़िया, लज़ीज़ खाना खिलाया हो और उस
खाने में घी, मक्खन की बहुमतता के साथ-साथ सुलभ स्नेह का भी छौंका लगाया गया हो। घी-मक्खन
और स्नेह दोनों की अधिकता के कारण लिस्ट में सबसे ऊपर मेरी माँ थी। उनकी खासियत यह
है की उन्हें पता रहता है कौन सी चीज़ मुझे कितनी मात्र में चाहिए होती है इसलिए
कभी ऐसी नौबत नहीं आती है की मेरी थाली में खाना पड़ा हो।
नयी बात यह है की
फ़िलहाल इस सूचि में एक बढोतरी हो गयी है। बीते दिनों एक मित्र के घर जाने का अवसर
मिला। वहां मेरी मुलाकात भाभीजी से हुई। नयी जगह और नए लोग दोनों से खासा सहमा हुआ
रहता हूँ, इसलिए लोगों से घुलने-मिलने में थोडा वक़्त लग जाता है और तब तक इस तेज़
चलती दुनिया में अक्सर लोग आगे निकल जाते हैं। यहाँ ऐसा नहीं हुआ। हालाँकि भाभीजी
से यह मेरी पहली मुलाक़ात नहीं थी लेकिन नयेपन वाली बात यह थी की उन दिन मैं
यूनीवर्सिटी में होता था और मेरी समझ अभी वैसे ही कम है, उस समय तो न के बराबर
होती थी। उम्र के इस पड़ाव पर थोडा ही सही लेकिन इंसानों के बारे में समझ तो रखने
ही लगा हूँ। हालाँकि मैं रूसो के इन्सानी प्रकृति वाले फलसफे को जहाँ वो कहते हैं
की सभी इन्सान अच्छे ही होते हैं पूरी तरह तरजीह देता हूँ, लेकिन कभी-कभी उदास तो
होना ही पड़ता है। उनसे मिलने से पहले कुछ इसी तरह के मिले-जुले ख्याल मेरे ज़ेहन
में उतर रहे थे।
रेलगाड़ी वैसे ही लेट
थी ऊपर से हाड़ कपाने वाली ठण्ड। बारह बजे के करीब उनके घर पहुंचा। नमस्ते कर सामने
वाले सोफे पर बैठा। उन्होंने जल्दी से नहा-धोकर तैयार होने को कहा। गरम पानी पहले
से ही रखा हुआ था। थोड़ी ही देर में तैयार हो खाने की मेज़ पर पहुंचा। गाड़ी के
विलम्ब होने की सूचना उन्हें पहले ही दे दी गयी थी, इसलिए आटे को पहले से ही गुंध
कर रखा हुआ था। बैठते ही एक के बाद एक खाने से भरी प्लेटें मेज़ पर प्रकट होनी शुरू हो
गयी। फ़िर भटूरों के तलने की आवाज़ आने लगी और गरमा-गरम भटूरे मेरी थाली में थे।
पहला ही कौर जैसे ही मुंह में गया लगा की अभी तक ज़िन्दगी में कुछ अधूरा था। शायद
अब पूरा हो गया। करीब आधे घंटे तक पेट पूजा करने के बाद ही मेज़ को छोड़ पाया। वैसे
खाने का तो अभी और मन था लेकिन सोचा की पेट तो अपना ही है इस तरह पेट की दशा पर
तरस खाकर उठ गया।
फिर एक मित्र के
विवाह कार्यक्रम में शामिल होने का न्योता था और उस शहर में आने का मेरा मुख्य
प्रयोजन भी। शाम को वहीँ हो लिये। रात भर शादी का कार्यक्रम चलता रहा। सुबह वापस आ
गए। भाभीजी के घर पहुँच गए। आज मुलायम कचोरियाँ नाश्ते की मेज़ पर हमारा इंतज़ार कर
रही थी। साथ में रायता, दही, शोरबेदार सब्ज़ी वगैरह-वगैरह। समय लेकर फिर खाने का
पूरा स्वाद लिया। रात के खाने में विशेष
प्रबंध था। पनीर, गोभी और कढ़ी की प्रमुखता थी। रात थोड़ी ज्यादा ज़रूर हो गयी थी और
सामान्य रूप से स्वयं बनाये नियम के अनुसार मैं देर रात को खाने की जगह नहीं खाना
पसंद करता हूँ, लेकिन मेज़ पर स्वादिष्ट व्यंजनों को देखकर एक दिन के लिए मैंने
अपना नियम तोड़ना ही बेहतर समझा। मज़े से फिर करीब 40-45 मिनट बैठ कर खाने का पूरा आनंद लिया।
अगला दिन मेरा आखिरी
दिन था। वापस आने का तो बिलकुल ही मन नहीं था। पता था की अब अगले दिन से वही
पुरानी दिनचर्या और वही पुराना खाना इंतज़ार कर रहा है। मन दुखी हो रहा था, लेकिन
मन को समझाना ही पड़ा, वो कहते हैं न की सभी अच्छी चीज़ें एक दिन ज़रूर ख़त्म हो जाती
हैं। तो शायद वो दिन आ गया था। नाश्ते की मेज़ पर पड़े आलू के पराठे और ऊपर से ढेर
सारा मक्खन, टमाटर, मिर्च की चटनी और मीठी दही ने पल भर के लिए भुला ही दिया की अब
मुझे जाना ही पड़ेगा। पेट भर खाया। फिर जैसे ही उठने वाला था भाभीजी ने एक और पराठा
मेरी प्लेट में डाल दिया। उसे भी धीरे-धीरे खा लिया।
समय अपनी गति से बढ़
रहा था लेकिन मुझे लगा कम्बख्त वक़्त ने तेज़ चाल पकड़ ली हो और नाश्ता करते-करते ही
ट्रेन का वक़्त नज़दीक आ गया। थोड़े भारी मन से नाश्ते की मेज़ पर से उठा और जल्दी से
तैयार हुआ। भाभीजी ने रात का खाना भी पैक कर दिया, उसे बैग में डाला, बैग को कंधे
पर लटकाया फिर घर से निकल आया। दरवाज़े पर भाभीजी खड़ी थीं। मैंने अंतिम बार प्रणाम
किया। उन्होंने कहा की वो मेरी शादी में मेरे घर आएँगी। सुनकर शायद थोडा सुखद
आश्चर्य हुआ की चलो किसी को तो लगा की मेरी भी शादी हो सकती है क्योंकि ऐसी कोई
सम्भावना दूर-दूर तक नहीं दिखती है। मैंने सबसे ‘गुड-बाय’ कहा। फिर मित्र ने बाईक
पर बैठाया और हम स्टेशन की तरफ निकल पड़े। बाईक पर थोड़ी दूर जाते ही मुझे जसपाल
भट्टी के कॉमेडी शो के पी.एच.डी. वाले एक एपिसोड की याद आ गयी। इसमें जसपाल भट्टी
की एक कार होती है जो बार-बार रूक जाती है और स्टूडेंट्स को बार-बार उसे धकेलना
पड़ता है। खैर थोड़ी मशक्कत के बाद समय से हम स्टेशन पहुँच गये।
1.40 पर गाड़ी खुल गयी। मित्र साहब को अलविदा कहा और चुपचाप अपनी
सीट पर बैठ गया। फिर वही पुराना सिलसिला शुरू हो गया। पेड़ों और बिजली के खम्बों का
ट्रेन की उलटी दिशा में सरपट भागना, उन्हीं स्टेशनों का दुबारा आना और अंतिम पड़ाव
जहाँ से फिर से पुरानी ज़िन्दगी की रेलगाड़ी शुरू हो गयी। सफ़र में एक ही बात अच्छी
थी और वो था उनका पैक किया हुआ खाना। काफी सलीके से मैंने उसे खोला और वक़्त लेकर
अंतिम कौर तक धीरे-धीरे खाया और मन ही मन उनका शुक्रिया अदा किया।
मेरी ज़िन्दगी का एक
आसान सा फलसफा है जिसकी धुरी इस बात को मानने पर टिकी है की हमारा पैदा होना कसीनो
के खेल की तरह है। सुई कहीं भी आकर रुक सकती है और विजेता कोई भी हो सकता है।
इसीलिए मज़हब और ज़ात जैसे महज़ पैदाईशी चीज़ों को इतना तव्वजोह देना लाज़मी नहीं है।
ज़रूरी यह है की उसके बाद हम क्या करते हैं। क्या हम अपने बंद किलों से निकल कर
मानवता के विशाल फ़ैलाव को महसूस कर पाते हैं या नहीं? स्नेह और प्यार का झरना सभी
के दिलों में प्रवाहित होता है। क्या हम उन झरनों में सराबोर होने के लिए तैयार
हैं जिनके स्त्रोत में सिर्फ मज़हब और ज़ात जैसे पैदाईशी अलगाव हैं लेकिन किसका मीठा
जल किसी भी थके राहगीर को बेतहाशा सुकून पहुंचाता है? वो तीन दिन मेरी ‘नॉर्मल’ सी
ज़िन्दगी में खासा मायने रखने वाले हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि इन तीन दिनों में
मेरी तो बस यही कोशिश रही की भाभीजी के दिल से बहते स्नेह के झरने के मीठे जल से स्वयं
को लबालब भर लूँ। दुनिया में आजकल स्नेह के झरने ऐसे ही सूख रहे हैं। शायद मैं इस
मामले में आखिरकार भाग्यशाली रहा। खाना तो बस एक बहाना था।
मेरा व्यवहारिक पक्ष
हमेशा से कमज़ोर रहा है। किसी भी तरह के तक्कल्लुफ़ से भी मुझे खासा परहेज़ है इसलिए
शायद बोल कर शुक्रिया अदा करने जैसा सामान्य व्यवहार भी व्यक्त करना मुझे ठीक तरह
से नहीं आता है। ऐसा भी नहीं होता है की मैं भावना-शून्य होता हूँ, लेकिन उसे
सामान्य तरह से व्यक्त करना मेरे लिए आसान नहीं होता है। इसलिए मैंने सोचा क्यूँ न
अपनी लेखनी के सहारे अपना आभार व्यक्त करूँ। समझ लीजिये इन शब्दों के ज़रिये मैं
वही कर रहा हूँ।
-MJ (Jan - 2013)
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