बारिश की बूंदों का निरंतर
टपटपाता स्वर
कभी धीमी कभी तेज़ पर निरंतर
जेल जैसी खिडकियों से बाहर
झांकते हुए
सपाट फैले संसार के सूनेपन
को देखता हूँ
एक बेबाक बेलौस सूनापन जो
कभी भयावह भी हो जाता है
मानवीय रिश्तों और
विसंगतियों के बारे में सोचता हूँ
शून्यता के गर्क में सिमटती
संवेदनाएं-भावनाएं
क्या यही है इनका मूल तथ्य –
अन्तत: खोखली
कहीं आडम्बर के साथ तो कहीं
शुद्ध स्वार्थ प्रदर्शन
कहीं अर्थ की चिंता कहीं अतृप्त
काम का बोध
इन सब के बीच पुरुषार्थ नष्ट
ही हो गया है
यह सब समझकर-जानकर उदास
होना
स्वाभाविक तो हो सकता है पर
जायज़ तो नहीं है
आखिरकार सुख तो बारिश की
बूंदों से उत्पन्न
बुलबुले जैसी चरित्र की ही
तो होती है
मानवीय स्थिति का मात्र एक
पहलू भर है
इन सबके बाद भी सिर्फ इंसान
बने रहने का संघर्ष तो लाज़मी है
yeh sab kahan se sochte ho bhai.....dil chu jata hai......
ReplyDeleteअपने चारों तरफ़ देखता हूँ, फिर जब सही-सही समझ नहीं पाता हूँ तब उस पर लिखकर पूरी तरह समझने की कोशिश होती है.
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