कभी मूर्त, कभी अमूर्त, कभी छलना, कभी ठगनी,
कभी होंठ थरथराते, कभी गाल झिलमिलाते, कभी बाल लहराते।
कभी अटकती, कभी मटकती, कभी झटकती,
इसी अटक-मटक-झटक को देख,
तुम पर दिल आ जाता है,
तुम्हें छूने की, तुम्हें चूमने की तमन्ना होती है।
मैंने सही पहचाना है न,
तो क्या तुम्हीं ‘सुख’ हो जिसकी चाहत सब को होती है?
क्या कहा तुमने, नहीं,
तुम वो नहीं हो जो मैं समझ रहा हूँ।
अच्छा तो तुम वास्तव में मृग मरीचिका हो,
जिससे आये दिन भेंट हो ही जाती है।
जीवन-रूपी रेगिस्तान के इस पड़ाव पर,
नख़लिस्तान का सिर्फ भ्रम देती हो।
मैं समझ नहीं पाता हूँ यह गुत्थी,
कई साल पहले तुम तो नहीं थे।
लेकिन शायद ‘सुख’ की अनुभूति थी।
अब लग रहा है वो भी एक भ्रम था,
वो भी एक मृग मरीचिका थी।
तो क्या समय बीत जाने पर,
आज मृग मरीचिका का चरित्र बदल जायेगा?
शायद नहीं ‘सुख’ मृग मरीचिका है,
मृग मरीचिका ही रहेगी।
कबीर के जीवन-रूपी बुलबुलों की तरह,
बनती रहेगी, फूटती रहेगी।
अरे! रुको भी, कहाँ जा रही हो?
थोड़ी देर रुक जाओ, बैठ जाओ मेरे पास।
क्या कहा? तुम नहीं रुकोगी, तुम्हें जाना है।
ओह! मैं पल भर
के लिए भूल गया था,
तुम्हारा वास्तविक चरित्र क्या है,
‘सुख’ तुम आखिरकार मृग मरीचिका हो न।
तुम तो छाया हो, मिथ्या हो, माया हो,
भूलभुलैया हो, सागर हो, मरू प्रदेश हो,
तुम जीवन का अंश नहीं हो,
या शायद कुछ कण भर हो,
तुम पूर्णत: सत्य तो नहीं हो,
सिर्फ होने भर का भ्रम हो।
सिसिफियस का श्राप याद है न,
बार-बार चट्टान उठाए चढ़ता है,
सब को लगता है कुछ हो रहा है,
पर वास्तव में इसका प्रभाव शून्य ही होता है,
‘सुख’ अंतत: कुछ नहीं होता,
कल्पना का अनुगूँज मात्र होता है।
अंत में बस इतना समझ लीजिये,
‘सुख’ आशा-रूपी पतंग का माँझा है,
आकाश में उड़ता है तो अच्छा लगता है,
संसार के तिलिस्म को बाँधे रखता है,
लेकिन हाथ में पकड़ते ही,
खून बह निकलता है।
really enjoy your hindi poems..
ReplyDeletenice thoughts!