Declaration

All the works are of a purely literary nature and are set on the fictional planet of Abracadabra. It has nothing to do with earthly affairs.

Sunday, March 22, 2015

मेला

कल मैं बाबा शेरशाह की मज़ार पर लगे मेले पर गया। जा कर अच्छा लगा इसलिए सोचा आप सभी देवियों और सज्जनों को लिख कर इसके बारे में बताऊँ।

हुआ यूँ की शाम में टहलने के लिए निकला था। बीच में कार्यालय के एक सज्जन मिल गए। उन्होंने बताया की पास में ही एक पीर बाबा लेटे हुए हैं और वहां मेला भी लगा हुआ है। उनके सुझाव पर मैं उसी ओर निकल लिया।

करीब दस मिनट चलने के बाद मेले के प्रांगन में पहुंचा। चारों ओर चहल-पहल थी। मैं पहले मज़ार पर गया। बाबा पर इत्र की शीशियाँ उढेली जा रही थी। इसलिए चारों तरफ का माहौल खुशबुनुमा हो रहा था। थोड़ी देर खड़ा रहा। ऊपर गुम्बद का अन्दर वाला हिस्सा दिख रहा था जिसमें शायद अरबी में आयतें लिखी हुई थी। लोग माथा टेक रहे थे। औरतें बैठे हुए मन ही मन कुछ पढ़ रही थी। इन सब को देखने के थोड़ी देर बाद बाहर आ गया और मेले में टहलने लगा।

उसी स्थान से सिर्फ 20 मीटर की दूरी पर छिन्नमस्ता  माता का मंदिर है। जनवरी के महीने में वहीँ पर मेला लगा हुआ था। उस मेले में भी मैं गया था। और कल पीर बाबा की मज़ार पर लगे मेले में गया। दोनों मेले में एक जैसी ही रौनक थी। खोमचे वाले भी वही थे। झूले वाले, चाट वाले, मिठाइयों वाले, खिलौने वाले सब एक जैसे ही लग रहे थे। बच्चे अच्छे-अच्छे कपड़ों में घूम रहे थे और मेले का मज़ा ले रहे थे। यहाँ पर अब भी झूलों की अहमियत थी। छोटी-छोटी दुकानों पर मिलने वाले खाने-पीने की चीज़ों की अहमियत थी। ऐसी जगहों पर रहने से, ऐसे मेलों में जाने से पक्का विश्वास हो जाता है की भारत में कई भारत बसते हैं। एक दूसरे से सदियों दूर लेकिन फिर भी पास-पास। महानगरों में रहने वाले लोग शायद इन चीज़ों की अहमियत को नहीं समझ पाए। वहां तो अब मनोरंजन भी बाज़ारवाद की चका-चौंध में सिमट कर रह गया और कई पैकेज में बिक रहा है।

खैर इन बातों को छोड़िये।

टहलते–टहलते मैं एक तस्वीर बेचने वाले की दुकान पर पहुंचा। रुक कर चादर पर फैले हुए तस्वीरों को देखने लगा। देखकर काफ़ी इत्मिनान हुआ। एक तरफ की तस्वीरों में अरबी में आयतें लिखी हुई थी और दूसरी ओर कई हिन्दू देवी-देवता विभिन्न मुद्राओं में प्रसन्नचित्त हो आशीर्वाद दे रहे थे। एक तस्वीर में एक बच्चा कुरान पढ़ रहा था और बगल की ही तस्वीर में गणेश जी महाभारत लिखने की मुद्रा में आसीन थे। एक तरफ मक्का और काबा की रौनक थी और दूसरी तरफ शंकर भगवान कैलाश पर्वत पर डमरू बजा रहे थे और देवी पार्वती उन्हें निहार रही थी। हालाँकि मैंने कोई तस्वीर नहीं खरीदी लेकिन बहुत दिन बाद बहुत अच्छा लगा।

आसनसोल से 20 किलोमीटर दूर दामोदर-बराकर के संगम पर बसे दिसरगढ़ नाम के इस छोटे से गाँव के मेले में यह बात समझ में आई की गंगा-जमुनी तहज़ीब का मतलब क्या होता है। समझ में आया की रज़ा साहब की गंगौली का ‘आधा गाँव’ ही नहीं, पूरा गाँव सन सैंतालिस के पहले कैसी होगी। खौफ़ और नफरत से पैदा होते ‘तमस’ से उजड़े बगीचों को तो साहनी जी हमें दिखा ही चुके थे। पता चला की कमलेश्वर जी के कितने पाकिस्तानों को फिर से नहीं बनने देने के लिए इन मेलों का होना कितना ज़रूरी है। आज-कल समाचार पत्रों को पढ़कर, फेसबुक पर लोगों के और कभी-कभी अपने ही मित्रों के कमेंट्स और पोस्ट्स देखकर खासा उदास हो जाता हूँ। सोचता हूँ हमसे तो बेहतर ये तस्वीरें है जो इत्मिनान से एक दूसरे के पास लेटी हुई हैं। इनके पास तो मष्तिष्क नहीं है, इन्हें हम निर्जीव मानते है लेकिन हम सजीव होकर भी एक-दूसरे के प्रति व्यमन्स्व क्यों पालते हैं।

खैर आगे चलते हैं।

मुझे भारत में रहने में इसलिए भी मज़ा आता है क्योंकि यहाँ तो इतने सारे त्यौहार होते हैं की एक खत्म नहीं हुआ की दूसरा शुरू। एक मेला ख़त्म नहीं हुआ की दूसरा शुरू। धर्म कोई भी हो, हमें तो मेले का मज़ा लेने में ही दिलचस्पी है। जैसे शादियों में मेरा ध्यान सिर्फ खाने पर होता है, वैसे ही मेले में चाट खाने में और इधर–उधर घूमने में ही फोकस करता हूँ। और हाँ, ना ही मुझे किसी धर्म विशेष में पैदा होने का गर्व है ना ही किसी में न पैदा होने का मलाल। इसलिए मैं गर्व से कुछ भी नहीं कहूँगा। और ना ही कोई और धर्म को मानने वाला मेरा दुश्मन है। आखिर मुझसे पूछ कर तो मेरा धर्म नहीं तय किया गया। खास बात यह है की भैया इ धरम-जात वाली बात हमरे पल्ले नाही पड़त। धरम कौनो हो, जात कौनो हो, हम इनका का करब, लोटा में घोर के पीयब तो नाही। इ सब ता भैया ‘लक’ की बात भइल। हम तो पीर बाबा की मज़ार पर भी जाइब और माता छिन्नमस्ता के मेले में भी जाइब। काहेकी हमरा फोकस तो भैया मेला होइब और उहाँ की चाट, हसत-मुस्कुरात बच्चे और जवान छोकरियन और बस कुछ नाही।

3 comments:

  1. क्या बात है..मेले का मज़ा सही तरीके से उठाया जा रहा है. अपनी पहचान भूल भीड़ में खोने का भी एक अलग आनंद है, और मेले उसी के हेतु लगाये जाते हैं. ज़िन्दगी के मेले का लुत्फ़ उठाते रहिये...

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  2. काफी सटीक ऑब्जरवेशन है देहात के सरल जीवन में धार्मिक सम्भाव का. बढ़िया लिखा है. काश हमारे तथाकथित सेकुलरिज्म और कम्यूनलिस्म के विशेषज्ञ जमीन से जुडे रहते.

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  3. शुक्रिया शादाब जी। मेला घूमकर काफी कुछ सीखने के लिए मिला और जितना समझ आया लिख दिया।
    अरुण जी को भी शुक्रिया। विशेषज्ञ जैसे ही स्वयं को विशेषज्ञ समझ लेते हैं जमीन से ऊपर उठ जाते हैं और उनका जमीन से कुछ लेना देना ही नहीं रहता सिवाय टॉपिक के।

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