कल मैं तुम्हारी हलकी पनिहाली
आँखों में देख रहा था
शायद तुमने काजल लगाया था
ठीक से पता नहीं
लेकिन उन हलकी गहरी आँखों में मैंने
कई प्रतिबिम्बों को उभरते देखा
चलचित्र वाली फ्लैश-बैक की तरह
कई चेहरे,
शिकवे, शिकायतें,
आशाएं
मुस्कुराहटें और घबराहट भी
ग्रीक नाटकों वाली
ट्रेजेडी और कॉमेडी की तरह
जीवन दर्शन के सूत्र उभरते जा रहे थे
तुम्हारी हलकी पनिहाली आँखों में
एक स्वेटर सा बुनता जा रहा था
ऊन के गोले सिमटते जाते
पैटर्न उभरता जाता
तुम्हारी आँखों में देखते-देखते
पता ही नहीं चला
दिन कब का ढल चुका था.
शायद अंतिम दृश्य उभर रहा था.
धुंधलका हो रहा था
शाम हो रही थी
जाते-जाते मैंने एक मृग को देखा
फिर वह गायब हो गया.
और तुम भी गायब हो गयी
ध्यान टूटने पर सोचा
शायद यह सब एक
मृगतृष्णा का अंश था
मृगतृष्णा
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