Declaration

All the works are of a purely literary nature and are set on the fictional planet of Abracadabra. It has nothing to do with earthly affairs.

Monday, January 13, 2014

दिया

चौखट पर रखा दिया,
जल रहा है धीरे-धीरे।
शायद तेल की आखिरी बूंद ही बांकी है,
या हवा ने जोर पकड़ ली है।

कुछ घंटो पहले ही,
जब सूरज ढल चुका था।
छोटी बहू ने उसमें तेल भरा था,
फिर जला कर छोड़ दिया चौखट पर।

दिया रोज़ सब कुछ देख रहा है,
वही बेबसी, सिसकियाँ, उबाऊपन।
एक अजीब से बेतुकेपन की चादर,
के अन्दर सिमटे सभी आगंतुक।

कभी-कभी दिया बुझना चाहता है,
लगता है उसके जलने का कोई औचित्य नहीं।
उसका जलना और निकलती रौशनी,
अर्थहीन गहराइयों में बस गोता लगा रहे हैं।

रात का आखिरी पहर ढल रहा है,
हवा से जारी निरंतर संघर्ष।
और तेल की आखिरी बूंद,
लेकिन ऐसा क्यूँ कि बुझने का नाम नहीं।

सहसा उसे निर्वाण प्राप्त हुआ हो,
ऐसा भी नहीं था।
दिये को लगा वह जलेगा तब तक,
उसका कोई भी अंश जीवित रहेगा।

तेल की आखिरी बूंद ख़त्म हुई,
लेकिन उससे जुड़ी बत्ती जलती रही।
आखिर यह भी दिये का ही अंश था,
और उसने ऐसा ही तो चाहा था।

निशा-प्रस्थान और रवि-आगमन,
दोनों की प्रतीक्षा समाप्त हुई।
आकाश के गर्भ से क्षितिज पटल पर,
जन्म लेती पहली किरण का आभास हुआ।

अब दिए ने एक लम्बी सांस ली,
बत्ती का आखिरी अंश भी जल गया।
और एक बार फिर दिया बुझ गया,
शाम को फिर से जलने के लिए।

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