शायद गहरे विषाद की अनुभूति,
या परस्पर विग्रहों की अनुगूँज।
कोलाहल के बीच फैला सन्नाटा,
या कानों में गूंजती स्पष्ट आवाज़।
विषाद, सूनापन, सन्नाटे
विस्तृत सुख का ही अंश हैं।
इसलिए सुकून ही तो पहुंचाते हैं,
हाँ, इनकी आदत डालनी पड़ सकती है।
शुरू-शुरू में स्वाद थोड़ा अजीब होगा,
इसीलिए जीभ को सिखाना पड़ सकता है।
मस्तिष्क को बताना पड़ सकता है,
कि इसी को यथार्थ कहते हैं।
चिनुआ अचीबी की एक किताब है,
‘चीज़ें बिखरती हैं’।
मिलन कुंदेरा की एक किताब है,
‘सत्व का असहनीय हल्कापन’।
चीज़ें सचमुच बिखरती हैं,
इसीलिए तो धूल, मिट्टी, गर्द
ज़िन्दगी के अभिलक्षण भी हैं
और उसकी परिभाषा भी।
असहनीय हल्केपन का आभास,
चारों ओर फैले भय के मकान।
परंपरा की पतली जंजीरें,
समाज की खोखली काल-कोठरियां।
आशा की सूखती धाराओं से पटे,
रेगिस्तानों के बावजूद।
नखलिस्तान सरीखे,
कालखंड की तलाश का प्रयत्न।
जब अँधेरे बंद कमरों के
रोशनदानों से गुज़र कर,
सूरज से निकलती असंख्य किरणें,
पूरे घर को नह्लाएंगीं।
मानवता स्वागत करेगी,
एक ऐसे कालखंड का।
जब परस्पर प्रेम ही,
एक-मात्र सत्य होगा।
तब और किसी भी चीज़ का,
कोई मतलब नहीं होगा।
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