Declaration

All the works are of a purely literary nature and are set on the fictional planet of Abracadabra. It has nothing to do with earthly affairs.

Thursday, January 30, 2014

I shall still love you

I shall still love you
Even when I know the truth
That you are drifting away from me
To a world uninhabited by my presence

I shall still love you
Even when you remove your hands
And leave me alone feeling cold
And vulnerable and with a void in my heart

I shall still love you
Even when I feel the chill settling down on my palms
And waiting for your warm and soft caresses
To glide over and rejuvenate them

I shall still love you
Even when I have learnt from Seneca
Who my friend tells, was Nero’s teacher
And was punished with death

I shall still love you
Even when I envision Seneca living and dying stoically
And with civility in this world
Driven patently by hate and uncivility

I shall still love you
Even when I see ‘Things Fall Apart’
And feel ‘The Unbearable Lightness of Being’
Or act like ‘The Stranger’ fighting ‘The Plague’

I shall still love you
Even when I have become sure of the fact
That you are just an illusion like everything else
Simply hanging on the mantle-piece of time.

I shall always love you
For you inhabit within me
That small island of love, beauty and truth
And all colours and joys and sorrows of my life and others

Those countless pages you may be
New or smudged or torn or folded on the corners
Smelling musty or sweet or of unrecognizable smells
I shall always love you wherever I find you.

Monday, January 13, 2014

दिया

चौखट पर रखा दिया,
जल रहा है धीरे-धीरे।
शायद तेल की आखिरी बूंद ही बांकी है,
या हवा ने जोर पकड़ ली है।

कुछ घंटो पहले ही,
जब सूरज ढल चुका था।
छोटी बहू ने उसमें तेल भरा था,
फिर जला कर छोड़ दिया चौखट पर।

दिया रोज़ सब कुछ देख रहा है,
वही बेबसी, सिसकियाँ, उबाऊपन।
एक अजीब से बेतुकेपन की चादर,
के अन्दर सिमटे सभी आगंतुक।

कभी-कभी दिया बुझना चाहता है,
लगता है उसके जलने का कोई औचित्य नहीं।
उसका जलना और निकलती रौशनी,
अर्थहीन गहराइयों में बस गोता लगा रहे हैं।

रात का आखिरी पहर ढल रहा है,
हवा से जारी निरंतर संघर्ष।
और तेल की आखिरी बूंद,
लेकिन ऐसा क्यूँ कि बुझने का नाम नहीं।

सहसा उसे निर्वाण प्राप्त हुआ हो,
ऐसा भी नहीं था।
दिये को लगा वह जलेगा तब तक,
उसका कोई भी अंश जीवित रहेगा।

तेल की आखिरी बूंद ख़त्म हुई,
लेकिन उससे जुड़ी बत्ती जलती रही।
आखिर यह भी दिये का ही अंश था,
और उसने ऐसा ही तो चाहा था।

निशा-प्रस्थान और रवि-आगमन,
दोनों की प्रतीक्षा समाप्त हुई।
आकाश के गर्भ से क्षितिज पटल पर,
जन्म लेती पहली किरण का आभास हुआ।

अब दिए ने एक लम्बी सांस ली,
बत्ती का आखिरी अंश भी जल गया।
और एक बार फिर दिया बुझ गया,
शाम को फिर से जलने के लिए।

Wednesday, January 1, 2014

यथार्थ

शायद गहरे विषाद की अनुभूति,
या परस्पर विग्रहों की अनुगूँज।
कोलाहल के बीच फैला सन्नाटा,
या कानों में गूंजती स्पष्ट आवाज़।

विषाद, सूनापन, सन्नाटे
विस्तृत सुख का ही अंश हैं।
इसलिए सुकून ही तो पहुंचाते हैं,
हाँ, इनकी आदत डालनी पड़ सकती है।

शुरू-शुरू में स्वाद थोड़ा अजीब होगा,
इसीलिए जीभ को सिखाना पड़ सकता है।
मस्तिष्क को बताना पड़ सकता है,
कि इसी को यथार्थ कहते हैं।

चिनुआ अचीबी की एक किताब है,
‘चीज़ें बिखरती हैं’।
मिलन कुंदेरा की एक किताब है,
‘सत्व का असहनीय हल्कापन’।

चीज़ें सचमुच बिखरती हैं,
इसीलिए तो धूल, मिट्टी, गर्द
ज़िन्दगी के अभिलक्षण भी हैं
और उसकी परिभाषा भी।

असहनीय हल्केपन का आभास,
चारों ओर फैले भय के मकान। 
परंपरा की पतली जंजीरें,
समाज की खोखली काल-कोठरियां।


आशा की सूखती धाराओं से पटे,
रेगिस्तानों के बावजूद।
नखलिस्तान सरीखे, 
कालखंड की तलाश का प्रयत्न।

जब अँधेरे बंद कमरों के
रोशनदानों से गुज़र कर,
सूरज से निकलती असंख्य किरणें,
पूरे घर को नह्लाएंगीं

मानवता स्वागत करेगी,
एक ऐसे कालखंड का।
जब परस्पर प्रेम ही,
एक-मात्र सत्य होगा।

तब और किसी भी चीज़ का,
कोई मतलब नहीं होगा।