Declaration

All the works are of a purely literary nature and are set on the fictional planet of Abracadabra. It has nothing to do with earthly affairs.

Saturday, June 30, 2012

पढ़े-लिखे लोग (3) गुलाबी स्वेटर/ तमन्ना

राम बाबू पड़े-लिखे थे। इनकम टैक्स विभाग में ऑफिसर थे। पत्नी कुसुम पेट से थी। गोलाई को देख कर लगा तीसरा महीना चल रहा होगा। मई की इस दोपहरी में उधर से निकलते हुए कुसुम भौजी को एक गुलाबी स्वेटर बुनते देख अनायास ही पूछा, “भौजी , इ किसके लिए गुलाबी स्वेटर बुन रही हो?” “तमन्ना के लिए”, बोलते हुए एक मीठी सी मुस्कान भौजी के होठों पर फ़ैल गयी। मैं थोड़ा अचकचाया। फिर भी पूछा, “कौन तमन्ना”? भौजी गोलाई की ओर इशारा कर बोली, “तीसरा महीना चल रहा है। दिसम्बर में तमन्ना आ जायेगी ओर उसे सर्दी में स्वेटर तो चाहिए होगा न।” भौजी से मिठाई खिलाने बोल आगे निकल गया। कई दिन बीत गए। एक दिन भौजी के घर की ओर से ही निकल रहा था, सोचा हाल-चाल पूछता चलूँ। देखा भौजी खटिया पर सोयी हुई थी। मुझे देख अनमने ढंग से उठ खटिये पर बैठ गयी। “भौजी कैसी हो? तमन्ना ने अब तो पेट में उधम मचाना शुरू कर दिया होगा?” भौजी को जैसे सांप सूंघ गया हो। एक दम चुप थी। मेरी नजर तमन्ना की ओर गयी। कुछ अटपटा सा लगा। गोलाई अब सपाट थी। मेरा दिमाग झंनाया। अचानक भौजी फूट-फूट कर रोने लगी। मैं सब समझ गया। भौजी सिर्फ इतना बोली, “गिरवा दिया, राम बाबू को लल्ला चाहिए था।” मैं निकलने को हुआ। तभी भौजी ने एक मिनट रुकने को कहा। धीरे-धीरे उठकर अंदर गयी। हाथ में वही अध-बुना गुलाबी स्वेटर था। कहा, “जाते-जाते इसे पोखरा में फेंकते आइयेगा, तमन्ना को अब सर्दी कभी नहीं लगेगी।”

राम बाबू पड़े-लिखे लोग थे।

पढ़े-लिखे लोग (2) एम.बी.ए./ मीता


मीता पढ़ी-लिखी थी। कभी कभार सोशल-वर्कमें भी इंटरेस्ट लेती थी।  प्लेसमेंट की दौड़ शुरू हो चुकी थी। दुनिया की जानी-मानी तेल की एक कंपनी का प्रोसेस चल रहा था। दस राउंड की परीक्षा के बाद मीता सफलहुई थी। अब मीता एक मोटे पैकेजके साथ उस तेल की कंपनी का एक हिस्सा बन गयी थी। शायद उसे नहीं पता था इस तेल कंपनी की लंबी दास्तान। या शायद उसने ज़रूरी नहीं समझा इस बात को जानने की। अब करियरकी दौड़ में आत्मा की आवाज़ जैसी फालतू चीज़ों पर ध्यान देना कितनी दकियानूसी सोंच है। इसी तेल कंपनी ने एशिया, अफ्रीका, अमरीका के कितने देशों में क्या-क्या गुल खिलाये हैं। शायद उसे केन सारु विवा की बुलंद आवाज़ नहीं सुनाई दी। शायद इकुएडोर, नाइजीरिया, इराक, जैसे कितने ही देशों के अवाम की चीखें आई-फोन के इयर-फोनके लगे होने के कारण कानों की परत को नहीं भेद पाए। अब मीता ही इतना क्यूँ सोचे, क्या उसने पूरी दुनिया का ठेका लिए हुए है। अब अपने मोहन को देख लो। भारत की सबसे बड़ी सिगरेट कंपनी के लिए काम करता है ठेठ भाषा में बोले तो कैंसर बेचता है पर उसकी चौड़ाई  तो देखो। या अपने समर भाई को ही देख लो। गोरों के लिए अफ्रीका को लूटने का काम आसान कर रहा है। साम्राज्यवाद खत्म हो गया है। लोग ऐसा बोलते हैं। अरे भाई, अब गोरों को खुद अफ्रीका जाकर अपने ही हाथों से लूटने का (गन्दा) काम करने की क्या ज़रूरत है जब भारत की एम.बी.ए. की फैक्ट्रियों में ग्रेजुएट थोक के भाव निकल रहे हैं। चलो अब मीता भी उस विरासत को आगे बढ़ाएगी, कंपनी को मुनाफा देगी, तभी तो ३६० डिग्री फीडबैक मे एक्स्ल्लेंट मिलेगा। वैसे कहते हैं न इश्क ओर जंग में तो सब जायज़ है ओर यह जिंदगी भी तो किसी जंग से कम तो नहीं। सब चलता है। सोचना सिर्फ सनकियों का काम है। चलो आगे चलो। करियर वाली फिल्म शुरू हो गयी। दिमाग  लगा सोचने बैठ गया तो फिल्म आगे निकल जायेगी। अरे दौड़ो भाई। अरे आप नहीं दौड़ सकते तो हट जाईये न।
मीता ओर मोहन ओर उनकी जमात पढ़े-लिखे लोग थे।


Monday, June 25, 2012

पढ़े-लिखे लोग (1) चोरी/ रतन बाबू


पढ़े-लिखे लोग
(काल्पनिक कथाएं या अफवाहों पर आधारित जिसका समाज से कोई लेना-देना नहीं)
1. चोरी/ रतन बाबू
रतन बाबू पढ़े-लिखे थे। रेलवे में दस साल से टी.टी. थे। अभी सुबह की गाड़ी से ही लौटे थे। रात भर कीकमाई’/’वसूलीसे फुले हुए पर्स को टेबल पर रख नहाने चले गए। कलुआ घर की सफाई कर रहा था। कमरे में कोई नहीं था। मालकिन रसोई में रतन बाबू के लिए नाश्ता बना रही थी। कलुआ की नज़र पर्स पर पड़ी। किसी को नहीं देख कर ख्याल आया क्यों पर्स को थोड़ा हल्का किया जाये। रतन बाबू को थोड़े ही पता चलेगा। तपाक से सौ-सौ के पांच नोट निकाल जल्दी-जल्दी सफाई कर वहां से छूमंतर हो गया। रतन बाबू नहाकर नाश्ता करने लगे। लड़का गया और जेब खर्च के लिए ची-पों शुरू कर दी। कुछ देर टालने के बाद हार मान  पर्स लाने को कहा। पैसे निकल कर देखा तो कुछ कम लगे। सोचा लगता है, मित्रों ने उन्हे बटाई में धोखा दिया। फोन करके राधे जी से पूछा की बटाई में कोई झोल तो  नहीं था। तो फिर पैसे गए कहाँ? रतन बाबू चिल्ला-चिल्ली कर पूरे मोहल्ले को जना दिया की चोरी हुई है। घर के बाहर भीड़ जमा हो गयी। तभी उधर से जोगी चाचा आते दिखे। कहा अभी-अभी कलुआ के पास ही जुए में बैठा था। उसके पास सौ-सौ के कड़क नोट थे। अब शक की कोई गुंजाईश नहीं थी। रतन बाबू दौड़े जुआ-खाने की ओर इस से पहले की कलुआरिएक्टकर पाता, रतन बाबू उसकी छाती पर थे। भीड़ ने कलुआ को सबक सिखाने की सोची। दो आदमियों ने कलुआ के हाथ को  पीछे बांध दिया और पेड़ से उल्टा लटका दिया। भीड़ को इस बात का क्लेश था की एकनीचजात के आदमी की ये मजाल कीफारवर्ड कास्टवाले के यहाँ चोरी कर ले। कुटाई चालू हो गयी। ये तो फारवर्ड वाले कीइज्ज़त’  की बात थी। जिसे मिल गया उसी ने हाथ साफ कर लिया। मुशहर टोला के लोग दूर से ही डब-डबाई आखों से मौत का ये सभ्य नाच देख रहे थे। घंटे भर की कुटाई के बाद कलुआ मर गया। रतन बाबू के कहने पर पेड़ से उतार नीचे फ़ेंक दिया गया उसकी लाश को मुसहर टोला की ओर जाने वाली सड़क पर। एक राहगीर ने पूछा, “भाई क्या हुआ?”, रतन बाबू ने सीना चौड़ा करके बोले, “साला, चोर था, मर गया साला।जैसे हीचोरशब्द ज़बान से छूटा, रतन बाबू को लगा, मांस का लोथड़ा अट्टहास कर रहा है।
रतन बाबू पढ़े-लिखे लोग थे।