विक्टोरिया मेमोरियल की ओर
दिन भर चारदीवारी में बंद घुटन से राहत पाने
के लिए शाम को बाहर निकला। सामने ही एलियट पार्क है। उधर की ही तरफ हो लिए। कई
जोड़ों को साथ देख कर लगा चलो दुनिया अभी भी ठीक ठाक चल रही है। जीवन की इस आपाधापी
के बावजूद समय निकल जा रहा है कुछ वक्त यूँ ही बिताने के लिए। कोई जोड़ा हाथ थामे
चल रहा हैं। कोई किसी पर सर टिकाये हुए है।
कोई कंधे पर हाथ रखे चल रहा है। कुछ दीवार
पर बैठें हैं। कुछ नीचे बस स्टैंड पर। कुछ बोल रहे हैं धीमे धीमे। कुछ खामोश बैठे
हैं। इन सभी को पार कर मेमोरियल की तरफ
चलने लगा। फुटपाथ पर चलते चलते अनायास ही कई ख्याल इधर उधर तैरने लगे। बाहर निकला
था की सोचना न पड़े। पर ये दिमाग साथ छोड़ता ही कहाँ है। कुछ देर भटकने के बाद दिमाग
फिर तंग करने लगा। हाँ उसकी टीस गहरी नहीं थी। मखमली थी। मैं सारे नज़ारे को देख मन
ही मन मुस्कुरा रहा था। फुटपाथ पर भी जिंदगी बसती है। सामने विक्टोरिया का बड़ा सा
स्मारक। न जाने कितने पैसे खर्च हुए होंगे इसे बनाने में। ऊँची-ऊँची बत्तियों के दुधिया
प्रकाश में चमचमाता स्मारक और सामने फुटपाथ
पर मिट्टी के तेल से जलते कई दिए। विक्टोरिया महारानी तो कब की चल गयी। अंग्रेजी
हुकूमत का सूरज भी डूब गया पर यहाँ तो विक्टोरिया का रुतबा अब भी बरक़रार है। उसी के
सहारे कितनों के पेट पल रहे होंगे।
फुटपाथ पर ही चूल्हा जल रहा था। रोटियां
तवे पर चढ़ रही थी सिंक रही थी उतर रही थी। बर्तन धुल रहे थे। थोड़ा गौर से देखा।
लोहें की रेलिंग पर कपडे टंगे हैं। कुछ बर्तन भी टंगे हैं। बहुत सा सामान भी पड़ा
है। लगता था पूरा घर ही है । हाँ सचमुच पूरा घर ही था। कितनी अजीब है ये दुनिया।
जो विक्टोरिया सात समंदर पार कब की कब्र
में गल कर मिट्टी में मिल गयी होगी उसके लिए इतना ताम-झाम और इतने सारों की कोई
परवाह नहीं। इस बात पर बेतहाशा हंसी आती है जब लोग इस दुनिया की परवाह करते हैं और
खासकर भगवान नाम की माया को। लगता है इन लोगों का भगवान भी इनकी तरह हाशिए पर है।
सामने सड़क पर कई बग्घियाँ खड़ी थी। पालों
में घोड़े बंधे थे। जहाँ तहां घोड़े की लीद बिखरी थी जिसकी गंध आने-जाने वालों की गंध से मिल अजीब सा
मिश्रण बना रही थी। एक घोड़े का नन्हा सा बच्चा दिखा । लग रहा था कुछ ही दिनों पहले
इस दुनिया में आया है। बेचारा एक पेड़ से बंधा था। इस के लिए तो पूरी जिंदगी पहले
से ही तय है। मन में एक गहरा सा भय आया । अंदर ही अंदर झकझोर गया। क्या इंसान भी
घोड़े जैसा नहीं है? उस घोड़े के गले में तो एक ही रस्सी थी पर इंसान को तो असंख्य
रस्सियाँ बांधे रहती है। कोख से निकलने से पहले ही तय होता है उसका धर्मं उसकी जात।
उसका परिवार उसका क्लास उसका स्टेटस। वगैरह-वगैरह। आखिरकार कितनी रस्सियों को
तोड़ेगा इंसान। थक हार कर अपनी ही रस्सी के फंदे में फंस जाता है एक दिन।
कितनी अजीब बात है। सब तय रहने के बाद भी
इंसान कोशिश करता है। बेचारे सिसिफियस की याद आ जाती है। उसपर एक श्राप है। वह एक
भरी भरकम चट्टान को बड़ी मुश्किल से ऊपर लेकर जाता है। नथुने फूलने लग जाते हैं
शरीर अकड़ जाता है। ऊपर पहुंचते- पहुंचते थक कर चूर हो जाता है। पर ऊपर पहुँचते ही चट्टान
लुढक कर नीचे पहुँच जाता है। वह फिर नीचे जाता है। फिर ऊपर जाता है और उसकी
जिन्दगीं में बस यही चलता रहता है।
चलते चलते मैदान के दूसरे तरफ पहुँच गया।
यहाँ थोड़ी शांति थी। हवा भी अच्छी चल रही थी। बाहें फैला उस हवा को पकड़ने लगा सिसिफियस
की तरह। बग्घियाँ सड़क पर दौड़ रही थी। कुछ में बच्चे बैठे थे अपने माता-पिता के साथ।
कुछ में जोड़े बैठे थे। अपने आसपास के जीवन की ध्वनि से महरूम घोड़े की चाल और
बग्घियों की टक-टक के तिलिस्म में खोये हुए सभी खुश थे शायद। शायद।
अँधियारा बढ़ रहा था। वापस अपने कमरे की ओर
चल पड़ा। फिर वही एलियट पार्क। फिर वही असंख्य जोड़े। इन को खुश देख कर लगा मैं
खामख्वाह ही घबरा रहा था। दुनिया उतनी भी बुरी नहीं है और ऊपर से हम तो इंसान हैं।
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