कई
महीने पहले एक शाम सांक्तोरिया की सड़कों पर चल रहा था. अनायास ही एक क्वार्टर पर
जाकर नज़र टिक गई. उस पर अंग्रेजी में लिखा था- ‘ABANDONED’ (अबैनडंड), यानि की निर्वासित, परित्यक्त या छोड़ दिया गया. फिर, कुछ दिन बाद उधर से गुज़र रहा था. नज़र उस क्वार्टर की ओर मुड़
गई. लेकिन इस बार वहां कोई क्वार्टर नहीं था. उस मकान की जगह एक अंबार पड़ा हुआ था- सीमेंट और
बालू में लिपटे टूटे इंट, जंग लगी छडें, कोई छोटा-मोटा सामान वगैरह-वगैरह. इन सब
को देख कर लगा की इस घर की आयु पूरी हो गयी है.
मैं उन
टूटे हुए इंटों के टुकड़े को ध्यान से देखने लगा. कई कहानियाँ यूँ ही उस अंबार से
उठकर हवा में तैरने लगी. मानस पटल पर चलचित्र की भांति वे कहानियाँ सजीव होने लगी.
हँसी-ठहाके, रुदन-क्रंदन, भजन, शिकायतें. तरकारी की छौंक. बच्चों की तोतली हंसी, उन बच्चों का पहली बार चलना और बार-बार गिर
जाना. होली-दिवाली, शादी-ब्याह. एक मध्यम वर्गीय परिवार
की परेशानियाँ, ख़ुशी के छोटे-छोटे पल, गम और हताशा के पल. संगीत. सभी कुछ था उसमें. कई
तरह की आवाजें तरंग बन हवा में तैरने लगे.
एक और बात- मैंने सोचा क्या इसे घर कहना ठीक होगा? यह तो महज़ एक क्वार्टर है- मात्र ठिकाना भर. इसके अन्दर अस्थायित्व का बोध समाहित है. ऐसे मकान अपने बाशिंदों को हमेशा अस्थिरता का बोध
कराते रहते हैं. अगर नौकरी घर के पास नहीं मिली तो नौकरी और तबादले में तो ननद-भौजाई
का रिश्ता हो जाता है. हमेशा एक दूसरे से प्रतिस्पर्धा में लगे ही रहते हैं.
मुलाजिम को स्थायी घर का सुख सेवा-निवृति के बाद ही मिलता है. लेकिन तब तक ज़न्दगी
एक बड़ा हिस्सा बीत चुका होता है. उम्र बढती जाती है, शरीर की शक्तियां घटती जाती है.
दार्शनिक
स्वभाव से सोंचे तो यह भी कह सकते हैं की जो लोग इस तरह के क्वार्टर में नहीं रहते
हैं, वो भी एक दूसरे तरह के क्वार्टर में रहते है. अब तक मनुष्य को अमरत्व का
अभिशाप तो प्राप्त नहीं हुआ है. हाँ, कभी-कभी जब जिंदगी में सब कुछ ठीक चल रहा होता है तो लगता है की समय
बदलेगा नहीं. लेकिन तभी हमें परिस्थितियों का ऐसा थप्पर पड़ता है की हम औंधे मुहं
गिर जाते है और फिर अपनी मनुष्यता का बोध होता है.
ज़रा
सोचिये क्या क्वार्टर सिर्फ ईंट-गारे से बनती है?
उन
यादों का क्या जिनका स्वेटर बुनता ही चला जाता है? अब किन्नी को ही ले लीजिये. कजोराग्राम
की कॉलोनी के एक क्वार्टर में पैदा हुई, झालबगान पहुँचते-पहुँचते कॉलेज पहुँच गयी. फिर अब कुछ दिन पहले शादी
भी थी. दिसरगढ़ क्लब में रिसेप्शन था, तभी पता चला.
कुछ
महीने बाद फिर उधर से गुजर रहा था.
देखा
नए क्वार्टर फिर से बन रहे हैं. इसका मतलब था, नयी स्मृतियाँ फिर से जन्म लेंगी. यादें फिर से गुल्लक में जमा होने
लगेंगी. बरामदों पर हंसी-ठहाकों की आवाजें फिर से गूंजेगी. बच्चों की किलकारियां, उनके झगड़े, उनकी शरारतें, फिर
से उस मिट्टी के टुकड़े को हरा-भरा करेंगे. एक नया परिवार फिर उसे कुछ ही दिनों के
लिए ही सही, उसे अपना घर कहेगा. अपनी गृहस्ती बसाएगा. नई कहानियाँ फिर से सजीव
होने लगेंगी. फिर वही चक्र चलता रहेगा. चलता रहेगा.
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