Declaration

All the works are of a purely literary nature and are set on the fictional planet of Abracadabra. It has nothing to do with earthly affairs.

Sunday, March 3, 2013

अंजुम



तेल में भुन रही मछली की गंध किचन से निकल कर बाहर के कमरे तक आ रही थी। मैं बरामदे में बैठा चाय पी रहा था
चाय पीते-पीते नज़र बगीचे में खेल रहे बच्चों के झुण्ड पर गयी। उन बच्चों की भीड़ में मैं शायद किसी को खोज रहा था।
एक जगह जाकर मेरी नज़र टिक गयी। यही कोई पांच-छः साल की लड़की होगी। उसकी गुलाबी फ्रॉक शायद कुछ याद दिला रहा था। लेकिन फ्रॉक से नीले फूल गायब थे। चेहरा शायद जाना-पहचाना लग रहा था।
अंजुम ने किचन से ही आवाज़ लगायी, “अरे इधर आओ तो जनाब, मछली नहीं खानी है क्या चंदर?”
“आ रहा हूँ, ये चाय तो ख़त्म कर लूँ पहले, तुम आज भी इतनी ही जल्दी में क्यूँ रहती हो?”, मैंने बाहर से ही बोला।
मुझे कुछ-कुछ याद आ रहा था। हाँ-हाँ, इसी नाम से वो मुझे बुलाती थी। दुनिया के लिए तो मैं चन्द्र प्रकाश कुमार था पर वो सिर्फ चंदर ही कहकर बुलाती थी।
हाँ कुछ नहीं तो अब 51-52 की तो होगी ही अंजुम। मुझे इसलिए पता है क्योंकि मेरी भी उम्र करीब-करीब इतनी ही है।
अरे हाँ धीरे-धीरे याद आ रहा है सब कुछ। पहली बार अंजुम से कब मिला था। वो गुलाबी फ्रॉक और धूल-मिट्टी से सना हुआ चेहरा। उस दिन उसने गुलाबी रंग की फ्रॉक पहनी थी जिस पर नीले-नीले फूलों के प्रिंट उभरे हुए थे। हमारे घर पास-पास ही थे। इस लिए मिलना रोज़ का होने लगा था। दोनों के बीच झिझक की दीवार तो पहले ही दिन ढह गयी थी। मजहब की जंजीरों से उस वक़्त तक बचे हुए थे सो हम दोनों के बीच दोस्ती होना लाजिमी था।
आज सोचता हूँ तो लगता है उन दिनों की हवा में बात ही कुछ और थी और शायद यही वजह थी की हम इतने मासूम हुआ करते थे। दोस्ती करना शायद पत्थर से टिकोले तोड़ने जैसा आसान और मज़ेदार काम होता था। ज़िन्दगी के बारे में ज्यादा परवाह करने की ज़रुरत महसूस नहीं होती थी। आखिर उन दिन यूनिट टेस्ट और सौ प्रतिशत का चक्कर नहीं होता था। और अगर होता भी होगा तो हम लोग उससे अनछुए ही थे।
तो हमारी दोस्ती हो गयी थी। उसके आने से बचपन की मस्ती का पिटारा और बड़ा हो गया था। दिन भर इधर से उधर धूमना-टहलना, कभी बिट्टो से लड़ाई कर ली कभी रम्पी को चांटा मार दिया। हम दोनों ने तो अपना छोटा सा गैंग ही बना लिया था।
कभी-कभी एक दूसरे से लड़ाई भी होती थी। उसकी एक बुरी आदत थी। वो मुझसे लड़ भी लेती और उल्टा दोष मेरा ही देती। फिर दो-तीन दिन मुंह फुलाए रहती। चौथे दिन मैं ही पहुँच जाता मांफी मांगने के लिए। पर हाँ वो मुस्कुराकर मान भी जाती थी। फिर हमारी मस्ती शुरू हो जाती।
बचपन बीत गया।
स्कूल-कॉलेज ख़त्म हो गया।
मेरी नौकरी लग गयी।
उसकी शादी हो गयी।
हम दोनों अलग हो गए।
समय बीतता गया। बीत ही रहा है।
आज अरसों बाद उससे मिल रहा हूँ।
तभी अंजुम किचन से बाहर आ गयी। मुझे गहरे सोच में देखकर बोली, “तुमने आज तक सोचना नहीं छोड़ा है क्या?” चंदर अब तो सोचना छोड़ ही दो। सोचते-सोचते बाल तो तुम्हारे सफ़ेद हो ही गए हैं, हमें न बताओ, रंग लगाकर अपने आपको अब भी जवान ही समझते हो।”
सामने अंजुम खड़ी थी। चेहरे पर झुर्रियां साफ झलक रही थी। बाल सन्न की तरह सफ़ेद हो गए थे। शरीर में हल्कापन आ गया था। किसी ज़माने में अच्छी खासी तंदुरुस्त हुआ करती थी। कभी-कभी पंजे वाले खेल में हरा भी देती। उसकी चाल भी थमी-थमी सी लग रही थी। लगता था समय ने अपना काम बखूबी अंजाम दे दिया है।
मैंने मुस्कुराते हुए उसकी तरफ देखा और बोला, “तुम तो अब भी जवान ही हो, तुम पर तो सौ लड़के मर मिटने के लिए तैयार होंगे।”
“तुम्हारी मसख़री  करने की आदत अभी तक गयी नहीं,” यह कहते हुए हँसते-हँसते मेरे बगल में आकर बैठ गयी।
मेज़ पर भुनी हुई मछली थी। चम्मच से एक टुकड़ा तोड़कर चम्मच मेरे मुंह की ओर बढाया। अगले ही पल टुकरा मेरे मुंह में था। पुराना स्वाद याद आ गया। ऐसे ही कितने टुकड़े उसने खिलाये होंगे मुझे।
तभी सामने का दरवाज़ा खुला। बगीचे में खेल रही गुलाबी फ्रॉक वाली वही छोटी लड़की धीमे-धीमे क़दमों से अन्दर आ रही थी। लड़की नानी-नानी पुकारते-पुकारते आकर अंजुम की गोद में सिकुड़ सी गयी। अंजुम ने चम्मच से मछली का एक टुकड़ा उसे भी दिया।
अब समझ में आया समय का पहिया कहाँ तक बढ़ चुका था।
थोड़ी देर बातें की। वही पुराने दिनों की बातें जब हम या तो बच्चे थे या जवानी की दहलीज़ पर कदम रखने वाले थे।
अँधेरा घिरने लगा था। मैं बाहर निकला।
अंजुम भी बाहर तक आई। फिर उसे अन्दर जाने को कहा और अकेला ही अपने घर वापिस जाने लगा।
पीछे मुड़कर देखा अंजुम अन्दर बैठी है। गुलाबी फ्रॉक वाली लड़की पूछ रही थी, नानी-नानी, “वो आदमी कौन था?”
“एक पुराना दोस्त”, कहकर अंजुम छत को देखने लगी और लड़की को सीने से लगा लिया।

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