Declaration

All the works are of a purely literary nature and are set on the fictional planet of Abracadabra. It has nothing to do with earthly affairs.

Wednesday, December 11, 2013

लिहाफ़ का निचला कोना

दोनों की शादी को अब तक 28 रातें हो गयीं थी। दिसंबर का महीना अब शुरू हो गया था। दिल्ली का मौसम और नव-दम्पति का मिजाज़ दोनों ठंडा हो चला था।
सुबह को चाय में कम चीनी तो शाम में सब्ज़ी में ज़्यादा नमक। रात के खाने का पहला कौर मुँह में डाला ही था की उसे लगा उसका ज़ायका बिगर गया। नमक शायद थोड़ी ज्यादा थी। बात बस इतनी थी या शायद नहीं।
रात होते-होते नमक-चीनी ने गंभीर रूप धारण कर लिया था।
सुहागरात का वही कमरा अब शीत-युद्ध के प्रभाव से बोझिल लग रहा था। न ही फूलों से सजी सेज थी न ही प्रथम मिलन की सुगबुगाहट। हाँ बिस्तर वही था। हालाँकि बिस्तर काफी चौड़ा था पर दोनों एक-एक छोर पकड़ कर लेट गए। एक दूसरे से मुंह फुलाए।
दोनों लेट तो गए थे लेकिन नींद नहीं थी। पहली रात की सिहरन भी तो नहीं थी। न ही एक नए प्राणी के स्पर्श की प्रतीक्षा में मन रोमांचित हो रहा था। यह सब तो हो चुका था। हनीमून पीछे छूट गया था। मून तो कब का आकाश में वापिस जा कर टंग चुका था और हनी धीरे-धीरे फीकी लग रही थी।
सपनों की दुनिया से वास्तविकता के धरातल का सफ़र ज्यादा लम्बा नहीं थी पर उबाऊ ज़रूर लग रही थी।
लेटे-लेटे दोनों के बदन काठ से हो रहे थे। सर्दी दोनों को लग रही थी लेकिन ‘झुकना’ कोई नहीं चाह रहा था।
फ़िक्र तो उसे भी हो रही थी। दिन भर कितना काम कर कितना थक जाते होंगे। मैं भी हूँ न बस मैं ही हूँ। पर गलती तो उसी की थी। इतनी जोर से उन्हें बोलना तो नहीं चाहिए था। और फिर इतनी बार तो मैंने मनाने की कोशिश भी की और ऐसा करते-करते गला भी रुंध आया था। पर वो भी तो ठहरे बस की अब बात ही नहीं मानेंगें।
धीरे-धीरे उसका भी मन अन्दर से कचोट रहा था। क्यों नहीं वह उसकी बात मानता है? क्यूँ वह छोटी-छोटी बात पर गुस्सा हो जाता है? एक दिन चाय में चीनी कम ही हो गयी थी तो कौन सा आसमान टूट पड़ा? हो सकता है मेरे स्वास्थ्य को लेकर चिंतित हो। पुरानी पतलूनें अब तो फिट भी नहीं होते। खामों-खां बेचारी का दिल दुख दिया। आखिर इतना सारा काम तो करती ही है वो? मेरी मीन-मेख निकलने वाली आदत गयी ही नहीं। सोचना तो चाहिए था उस पर चीखने से पहले। और उसने कितनी बार उसने मुझे मनाने की कोशिश की। उसका गला सूख गया होगा और मैंने उसके भावनाओं की ज़रा भी कद्र नहीं की। मेरा निष्ठुर ह्रदय शायद अब पत्थर का हो गया है।
काफी देर बाद उसने सोचा कि वो ‘रिस्क’ लेकर देखेगा। उसे यह भी लगा की वो अब तक सो गयी होगी।
मन में उभरते विचारों से आत्म-द्वन्द करते-करते गलती से या जान-बूझकर लिहाफ़ के निचले कोने की दाई छोर से ढके उसके बाएं पैर के अंगूठे से उसका दायाँ पैर छू गया। उसने कोई प्रतिक्रिया नहीं की। इससे उसका हौसला बढ़ा और धीरे-धीरे उसने फिर से उसे उसी जगह छुआ। इस बार हल्की सी प्रतिक्रिया हुई। चूड़ियों की खनखनाहट। एक सिहरन। फिर एक हल्की सी आह। उसे पता चल गया की अभी तक जगी हुई है। थोड़ी देर तक सब कुछ शांत रहा। जैसे तूफ़ान के पहले की ख़ामोशी हो। फर्क सिर्फ इतना था की तूफ़ान दिल में उठ रहे थे और दुनिया का कोई नुकसान भी नहीं होने जा रहा था।
दोनों के शरीर और आत्माएं बिस्तर के छोर वाली अपनी जोगी हुई जागीर को छोड़ एक दूसरे की ओर चुम्बकीय आकर्षण के प्रभाव में खुद-ब-खुद बढ़ने लगे। शायद दोनों को एक दूसरे की परस्पर ज़रुरत महसूस हो रही थी। उसके बदन की भीनी-भीनी सी खुशबू उसके नथूनों से चलकर सीधे आत्मा तक पहुँच रही थी। यह एक दिव्य अनुभव था। उसने हाथ बढ़ा कर उसे छूना चाहा। उसने उसे छूने दिया। फिर खुद धीरे से खींचकर अपने सीने से लगा लिया और उसके बालों को सहलाने लगी। सहलाते-सहलाते अपने होठों से उसके चेहरे के भूगोल को पढ़ने की कोशिश करने लगी। जब उसके होंठ मिल गए तो खुद भी थोड़ी सिमट गयी और उसे भी खींच लिया और चंद पलों के लिए अपने होठों को वहीं टिका दिया।
शायद ठंड कुछ ज़्यादा थी। शायद यह सब कुछ शारीरिक था। शायद यह सब कुछ आत्मीय था। या शायद इन सभी का एक उत्कृष्ट सम्मिश्रण। पर फर्क पड़ता है क्या? अब दर्शन-शाश्त्र की कक्षा तो चल नहीं रही थी की कारण-प्रभाव में दिलचस्पी हो।
ज़रूरी बात यह थी की दोनों एक दूसरे के आलिंगन में कैद थे लेकिन अपने अहम से आज़ाद थे।
कुछ पलों के लिए ही सही लेकिन शायद दोनों को ‘सुख’ की अनुभूति हुई। ‘सुख’ ने शरीर के माध्यम से दोनों की आत्माओं को छुआ।
अरसों बीते। ज़िन्दगी का यंत्री-करण बढ़ता ही गया। वक्त के बदलते मौसम ने हर चीज़, हर हौंसले, हर अनुभव को ‘सामान्य’ बना दिया था। शारीरिक-आत्मीय ‘सुख’ की परिकल्पना सुबह नाश्ते के लिए रोज़ डबल-रोटी लाने जैसा साधारण कार्य हो गया था। मौसम-साल-सरकार बदले। बच्चे हुए। लड़ाइयाँ भी हुई। परिवार बढ़ा। बालों के रंग बदले। रिटायरमेंट भी हो गया। सिर्फ दोनों के प्रेम का स्वरूप नहीं बदला।     

आज भी उम्र के सत्तरवें पड़ाव पर जब भी लिहाफ के निचले कोने की याद आती है, एक संतोष-भरी मुस्कान उसके चेहरे पर फ़ैल जाती है। हाँ चेहरों पर कहीं-कहीं रेखाएं उभर आई हैं तो मुस्कान इन घाटियों में थोड़ी देर ज़रूर ठहर सी जाती है। वक्त भी कुछ पलों के लिए ठहर जाता है। फिर एक लम्बी साँस भरते हुए ज़िन्दगी और वक़्त दोनों निरंतर गति से चलने लगते हैं।

Saturday, October 26, 2013

Silence


The silence roving in darkness
During long cloudy nights
The silence prowling in light
On moonlit nights, mornings and afternoons

The silence of an old creaking fan
Continuously rotating above the head
Stretching the days and nights
Filling it with ennui and nothingness

The silence of floating rain drops in air
Resembling the facial contours
Of a baby just smiling and emoting
And still struggling to form words

The cacophony emanating from the bosoms of the silence
The silence echoing in the heart of this cacophony
The oppression perpetrated by the silence
The soothing calm induced by the silence

Sinking into the morasses of the silence
Rising from the depths of the silence
The beauty and the enigma of the silence
The masculine and the feminine of the silence

The perils of this unencumbered chore
Of establishing companionship with the silence
Leads to an island of utter desolation and wasteland
Sprinkled with hopelessness and a little hope

Sunday, August 25, 2013

मृग मरीचिका


कभी मूर्त, कभी अमूर्त, कभी छलना, कभी ठगनी,
कभी होंठ थरथराते, कभी गाल झिलमिलाते, कभी बाल लहराते।
कभी अटकती, कभी मटकती, कभी झटकती,
इसी अटक-मटक-झटक को देख,
तुम पर दिल आ जाता है,
तुम्हें छूने की, तुम्हें चूमने की तमन्ना होती है।

मैंने सही पहचाना है न,
तो क्या तुम्हीं सुखहो जिसकी चाहत सब को होती है?
क्या कहा तुमने, नहीं,
तुम वो नहीं हो जो मैं समझ रहा हूँ।
अच्छा तो तुम वास्तव में मृग मरीचिका हो,
जिससे आये दिन भेंट हो ही जाती है।

जीवन-रूपी रेगिस्तान के इस पड़ाव पर,
नख़लिस्तान का सिर्फ भ्रम देती हो।
मैं समझ नहीं पाता हूँ यह गुत्थी,
कई साल पहले तुम तो नहीं थे।
लेकिन शायद सुखकी अनुभूति थी।
अब लग रहा है वो भी एक भ्रम था,
वो भी एक मृग मरीचिका थी।

तो क्या समय बीत जाने पर,
आज मृग मरीचिका का चरित्र बदल जायेगा?
शायद नहीं सुखमृग मरीचिका है,
मृग मरीचिका ही रहेगी।
कबीर के जीवन-रूपी बुलबुलों की तरह,
बनती रहेगी, फूटती रहेगी।

अरे! रुको भी, कहाँ जा रही हो?
थोड़ी देर रुक जाओ, बैठ जाओ मेरे पास।
क्या कहा? तुम नहीं रुकोगी, तुम्हें जाना है।
ओहमैं पल भर के लिए भूल गया था,
तुम्हारा वास्तविक चरित्र क्या है,
सुखतुम आखिरकार मृग मरीचिका हो न।

तुम तो छाया हो, मिथ्या हो, माया हो,  
भूलभुलैया हो, सागर हो, मरू प्रदेश हो,
तुम जीवन का अंश नहीं हो,
या शायद कुछ कण भर हो,  
तुम पूर्णत: सत्य तो नहीं हो,
सिर्फ होने भर का भ्रम हो।

सिसिफियस का श्राप याद है न,
बार-बार चट्टान उठाए चढ़ता है,
सब को लगता है कुछ हो रहा है,
पर वास्तव में इसका प्रभाव शून्य ही होता है,
सुखअंतत: कुछ नहीं होता,
कल्पना का अनुगूँज मात्र होता है।

अंत में बस इतना समझ लीजिये,
सुखआशा-रूपी पतंग का माँझा है,
आकाश में उड़ता है तो अच्छा लगता है,
संसार के तिलिस्म को बाँधे रखता है,
लेकिन हाथ में पकड़ते ही,
खून बह निकलता है।

Wednesday, August 7, 2013

उदासी पर एक कविता


बारिश की बूंदों का निरंतर टपटपाता स्वर
कभी धीमी कभी तेज़ पर निरंतर
जेल जैसी खिडकियों से बाहर झांकते हुए
सपाट फैले संसार के सूनेपन को देखता हूँ
एक बेबाक बेलौस सूनापन जो कभी भयावह भी हो जाता है
मानवीय रिश्तों और विसंगतियों के बारे में सोचता हूँ
शून्यता के गर्क में सिमटती संवेदनाएं-भावनाएं
क्या यही है इनका मूल तथ्य – अन्तत: खोखली
कहीं आडम्बर के साथ तो कहीं शुद्ध स्वार्थ प्रदर्शन
कहीं अर्थ की चिंता कहीं अतृप्त काम का बोध
इन सब के बीच पुरुषार्थ नष्ट ही हो गया है
यह सब समझकर-जानकर उदास होना
स्वाभाविक तो हो सकता है पर जायज़ तो नहीं है
आखिरकार सुख तो बारिश की बूंदों से उत्पन्न
बुलबुले जैसी चरित्र की ही तो होती है
मानवीय स्थिति का मात्र एक पहलू भर है
इन सबके बाद भी सिर्फ इंसान बने रहने का संघर्ष तो लाज़मी है  



Wednesday, July 3, 2013

On Pragmatism

And so it was an engagement ceremony where everyone had to smile or laugh or act phoney in their chosen ways.

And so much phoniness became quite heavy after some time.

Food was the only good thing.

And so he ate a little and to add to the burgeoning phoniness, he thought about the road.

This is the road.

A lot of sweat flows in some dark corner.

Planned or by mistake two chromosomes agree to coagulate and the mixture grows for approximately nine months.

One fine hour biochemistry, patience and pain pushes the newly formed creature out.

The sac gives way, the cord is cut and the creature smells the world.

Liquids dominate.

Sometimes white puke and sometimes yellow diarrhoea flood the place.

Then some gibberish, plain speech and language follow.

Bricks and mortar structures proclaiming themselves as schools are next in line.

Information gobble programmed with punctuated time bound pukes masquerade as education.

Some truths but mostly lies and then some more information gobble and a lot more punctuated time bound pukes at larger buildings with fancier tags like university mark the end of education.

The colour (commonly referred to as brands) of fancy tag buildings with regular puking hours decides the next set of encounters.

And now there is some suited booted horsing around which may be called as a job.

And then again the need to find some dark corner to sweat it out with someone else.

After all, the system must run as designed.

So there will be an engagement where people will be called to fool around, act phoney and pretend to be normal.

After all the society needs to sanction acts of sweating as well. So much for free will.

But Sisyphus thinks and intervenes.

Sisyphus decides to go on.

Sisyphus must go on.  

Friday, June 21, 2013

On Death

He had a normal sleep that night or almost normal.

He had woken up from a dream.

He had died in his dream.

As the fact of his own death dawned on him, he lay petrified at that very instance. He was afraid.

And slowly he began feeling sorry for having died.

He had made so many plans some for his own self and some rather large grandiose visions concerning ‘humanity’.

And now after his death, those plans would die their own deaths.

That was purely the materialistic part affecting his mental state after his death.

His mind ambled for a while in causalities and after effects. He concluded that his death was a loss to be mourned by his own self.

Then he proceeded to the effects it would cause on people and concluded that the world would be just as fine as it was before. It was not an event to be celebrated or mourned but one of the many mundane events that crowd the lives of selves.

So he was feeling sorry for having died.

Having thus concluded, he wanted to reverse the chain of events to bring his own self back to life.

More slowly, now when he lay in mourning another thought crossed his mind.

His death would also impart a sense of finality to all his travails and desires. Suddenly he was suffused with a sense of utter humility and blankness. He had never experienced such a state of mind as this one. This sense of finality, this sense of closure was after all a fact.

Materially speaking,“So where would the elements seek refuge when they have disintegrated into further minute particles?” “Nowhere”, he thought.

So after all, this notion of finitude which contained humble mumble jumble of daily life (read home-road-office-home) as well as ‘grandiose visions for humanity’ was a fact. So this must be taken as a fact, nothing less nothing more.

Slowly and very slowly now he was feeling less sorry for having died. Somehow he was feeling a little better as the realization of finitude dawned on him.

And now he was fine with his death and with the chain of events leading to it. He did not want any reversal of this chain. He saw death as a charming lady inviting his self into her open bosom.

Meanwhile the sun was rising in the sky. The sunlight filled his room and he opened his eyes.


The harsh rays of the sun penetrated his eyes and finding himself to be alive, he felt cheated.