दोनों की शादी को अब
तक 28 रातें हो गयीं थी। दिसंबर का महीना अब शुरू हो
गया था। दिल्ली का मौसम और नव-दम्पति का मिजाज़ दोनों ठंडा हो चला था।
सुबह को चाय में कम
चीनी तो शाम में सब्ज़ी में ज़्यादा नमक। रात के खाने का पहला कौर मुँह में डाला ही
था की उसे लगा उसका ज़ायका बिगर गया। नमक शायद थोड़ी ज्यादा थी। बात बस इतनी थी या
शायद नहीं।
रात होते-होते नमक-चीनी
ने गंभीर रूप धारण कर लिया था।
सुहागरात का वही
कमरा अब शीत-युद्ध के प्रभाव से बोझिल लग रहा था। न ही फूलों से सजी सेज थी न ही
प्रथम मिलन की सुगबुगाहट। हाँ बिस्तर वही था। हालाँकि बिस्तर काफी चौड़ा था पर
दोनों एक-एक छोर पकड़ कर लेट गए। एक दूसरे से मुंह फुलाए।
दोनों लेट तो गए थे
लेकिन नींद नहीं थी। पहली रात की सिहरन भी तो नहीं थी। न ही एक नए प्राणी के
स्पर्श की प्रतीक्षा में मन रोमांचित हो रहा था। यह सब तो हो चुका था। हनीमून पीछे
छूट गया था। मून तो कब का आकाश में वापिस जा कर टंग चुका था और हनी धीरे-धीरे फीकी
लग रही थी।
सपनों की दुनिया से
वास्तविकता के धरातल का सफ़र ज्यादा लम्बा नहीं थी पर उबाऊ ज़रूर लग रही थी।
लेटे-लेटे दोनों के बदन
काठ से हो रहे थे। सर्दी दोनों को लग रही थी लेकिन ‘झुकना’ कोई नहीं चाह रहा था।
फ़िक्र तो उसे भी हो
रही थी। दिन भर कितना काम कर कितना थक जाते होंगे। मैं भी हूँ न बस मैं ही हूँ। पर
गलती तो उसी की थी। इतनी जोर से उन्हें बोलना तो नहीं चाहिए था। और फिर इतनी बार
तो मैंने मनाने की कोशिश भी की और ऐसा करते-करते गला भी रुंध आया था। पर वो भी तो
ठहरे बस की अब बात ही नहीं मानेंगें।
धीरे-धीरे उसका भी मन
अन्दर से कचोट रहा था। क्यों नहीं वह उसकी बात मानता है? क्यूँ वह छोटी-छोटी बात पर
गुस्सा हो जाता है? एक दिन चाय में चीनी कम ही हो गयी थी तो कौन सा आसमान टूट पड़ा?
हो सकता है मेरे स्वास्थ्य को लेकर चिंतित हो। पुरानी पतलूनें अब तो फिट भी नहीं
होते। खामों-खां बेचारी का दिल दुख दिया। आखिर इतना सारा काम तो करती ही है वो?
मेरी मीन-मेख निकलने वाली आदत गयी ही नहीं। सोचना तो चाहिए था उस पर चीखने से पहले।
और उसने कितनी बार उसने मुझे मनाने की कोशिश की। उसका गला सूख गया होगा और मैंने
उसके भावनाओं की ज़रा भी कद्र नहीं की। मेरा निष्ठुर ह्रदय शायद अब पत्थर का हो गया
है।
काफी देर बाद उसने
सोचा कि वो ‘रिस्क’ लेकर देखेगा। उसे यह भी लगा की वो अब तक सो गयी होगी।
मन में उभरते
विचारों से आत्म-द्वन्द करते-करते गलती से या जान-बूझकर लिहाफ़ के निचले कोने की
दाई छोर से ढके उसके बाएं पैर के अंगूठे से उसका दायाँ पैर छू गया। उसने कोई
प्रतिक्रिया नहीं की। इससे उसका हौसला बढ़ा और धीरे-धीरे उसने फिर से उसे उसी जगह
छुआ। इस बार हल्की सी प्रतिक्रिया हुई। चूड़ियों की खनखनाहट। एक सिहरन। फिर एक हल्की
सी आह। उसे पता चल गया की अभी तक जगी हुई है। थोड़ी देर तक सब कुछ शांत रहा। जैसे
तूफ़ान के पहले की ख़ामोशी हो। फर्क सिर्फ इतना था की तूफ़ान दिल में उठ रहे थे और
दुनिया का कोई नुकसान भी नहीं होने जा रहा था।
दोनों के शरीर और
आत्माएं बिस्तर के छोर वाली अपनी जोगी हुई जागीर को छोड़ एक दूसरे की ओर चुम्बकीय आकर्षण
के प्रभाव में खुद-ब-खुद बढ़ने लगे। शायद दोनों को एक दूसरे की परस्पर ज़रुरत महसूस
हो रही थी। उसके बदन की भीनी-भीनी सी खुशबू उसके नथूनों से चलकर सीधे आत्मा तक
पहुँच रही थी। यह एक दिव्य अनुभव था। उसने हाथ बढ़ा कर उसे छूना चाहा। उसने उसे छूने
दिया। फिर खुद धीरे से खींचकर अपने सीने से लगा लिया और उसके बालों को सहलाने लगी।
सहलाते-सहलाते अपने होठों से उसके चेहरे के भूगोल को पढ़ने की कोशिश करने लगी। जब
उसके होंठ मिल गए तो खुद भी थोड़ी सिमट गयी और उसे भी खींच लिया और चंद पलों के लिए
अपने होठों को वहीं टिका दिया।
शायद ठंड कुछ ज़्यादा
थी। शायद यह सब कुछ शारीरिक था। शायद यह सब कुछ आत्मीय था। या शायद इन सभी का एक
उत्कृष्ट सम्मिश्रण। पर फर्क पड़ता है क्या? अब दर्शन-शाश्त्र की कक्षा तो चल नहीं
रही थी की कारण-प्रभाव में दिलचस्पी हो।
ज़रूरी बात यह थी की
दोनों एक दूसरे के आलिंगन में कैद थे लेकिन अपने अहम से आज़ाद थे।
कुछ पलों के लिए ही
सही लेकिन शायद दोनों को ‘सुख’ की अनुभूति हुई। ‘सुख’ ने शरीर के माध्यम से दोनों
की आत्माओं को छुआ।
अरसों बीते। ज़िन्दगी
का यंत्री-करण बढ़ता ही गया। वक्त के बदलते मौसम ने हर चीज़, हर हौंसले, हर अनुभव को
‘सामान्य’ बना दिया था। शारीरिक-आत्मीय ‘सुख’ की परिकल्पना सुबह नाश्ते के लिए रोज़
डबल-रोटी लाने जैसा साधारण कार्य हो गया था। मौसम-साल-सरकार बदले। बच्चे हुए। लड़ाइयाँ
भी हुई। परिवार बढ़ा। बालों के रंग बदले। रिटायरमेंट भी हो गया। सिर्फ दोनों के
प्रेम का स्वरूप नहीं बदला।
आज भी उम्र के सत्तरवें
पड़ाव पर जब भी लिहाफ के निचले कोने की याद आती है, एक संतोष-भरी मुस्कान उसके
चेहरे पर फ़ैल जाती है। हाँ चेहरों पर कहीं-कहीं रेखाएं उभर आई हैं तो मुस्कान इन
घाटियों में थोड़ी देर ज़रूर ठहर सी जाती है। वक्त भी कुछ पलों के लिए ठहर जाता है।
फिर एक लम्बी साँस भरते हुए ज़िन्दगी और वक़्त दोनों निरंतर गति से चलने लगते हैं।