Declaration

All the works are of a purely literary nature and are set on the fictional planet of Abracadabra. It has nothing to do with earthly affairs.

Sunday, August 25, 2013

मृग मरीचिका


कभी मूर्त, कभी अमूर्त, कभी छलना, कभी ठगनी,
कभी होंठ थरथराते, कभी गाल झिलमिलाते, कभी बाल लहराते।
कभी अटकती, कभी मटकती, कभी झटकती,
इसी अटक-मटक-झटक को देख,
तुम पर दिल आ जाता है,
तुम्हें छूने की, तुम्हें चूमने की तमन्ना होती है।

मैंने सही पहचाना है न,
तो क्या तुम्हीं सुखहो जिसकी चाहत सब को होती है?
क्या कहा तुमने, नहीं,
तुम वो नहीं हो जो मैं समझ रहा हूँ।
अच्छा तो तुम वास्तव में मृग मरीचिका हो,
जिससे आये दिन भेंट हो ही जाती है।

जीवन-रूपी रेगिस्तान के इस पड़ाव पर,
नख़लिस्तान का सिर्फ भ्रम देती हो।
मैं समझ नहीं पाता हूँ यह गुत्थी,
कई साल पहले तुम तो नहीं थे।
लेकिन शायद सुखकी अनुभूति थी।
अब लग रहा है वो भी एक भ्रम था,
वो भी एक मृग मरीचिका थी।

तो क्या समय बीत जाने पर,
आज मृग मरीचिका का चरित्र बदल जायेगा?
शायद नहीं सुखमृग मरीचिका है,
मृग मरीचिका ही रहेगी।
कबीर के जीवन-रूपी बुलबुलों की तरह,
बनती रहेगी, फूटती रहेगी।

अरे! रुको भी, कहाँ जा रही हो?
थोड़ी देर रुक जाओ, बैठ जाओ मेरे पास।
क्या कहा? तुम नहीं रुकोगी, तुम्हें जाना है।
ओहमैं पल भर के लिए भूल गया था,
तुम्हारा वास्तविक चरित्र क्या है,
सुखतुम आखिरकार मृग मरीचिका हो न।

तुम तो छाया हो, मिथ्या हो, माया हो,  
भूलभुलैया हो, सागर हो, मरू प्रदेश हो,
तुम जीवन का अंश नहीं हो,
या शायद कुछ कण भर हो,  
तुम पूर्णत: सत्य तो नहीं हो,
सिर्फ होने भर का भ्रम हो।

सिसिफियस का श्राप याद है न,
बार-बार चट्टान उठाए चढ़ता है,
सब को लगता है कुछ हो रहा है,
पर वास्तव में इसका प्रभाव शून्य ही होता है,
सुखअंतत: कुछ नहीं होता,
कल्पना का अनुगूँज मात्र होता है।

अंत में बस इतना समझ लीजिये,
सुखआशा-रूपी पतंग का माँझा है,
आकाश में उड़ता है तो अच्छा लगता है,
संसार के तिलिस्म को बाँधे रखता है,
लेकिन हाथ में पकड़ते ही,
खून बह निकलता है।

Wednesday, August 7, 2013

उदासी पर एक कविता


बारिश की बूंदों का निरंतर टपटपाता स्वर
कभी धीमी कभी तेज़ पर निरंतर
जेल जैसी खिडकियों से बाहर झांकते हुए
सपाट फैले संसार के सूनेपन को देखता हूँ
एक बेबाक बेलौस सूनापन जो कभी भयावह भी हो जाता है
मानवीय रिश्तों और विसंगतियों के बारे में सोचता हूँ
शून्यता के गर्क में सिमटती संवेदनाएं-भावनाएं
क्या यही है इनका मूल तथ्य – अन्तत: खोखली
कहीं आडम्बर के साथ तो कहीं शुद्ध स्वार्थ प्रदर्शन
कहीं अर्थ की चिंता कहीं अतृप्त काम का बोध
इन सब के बीच पुरुषार्थ नष्ट ही हो गया है
यह सब समझकर-जानकर उदास होना
स्वाभाविक तो हो सकता है पर जायज़ तो नहीं है
आखिरकार सुख तो बारिश की बूंदों से उत्पन्न
बुलबुले जैसी चरित्र की ही तो होती है
मानवीय स्थिति का मात्र एक पहलू भर है
इन सबके बाद भी सिर्फ इंसान बने रहने का संघर्ष तो लाज़मी है