Declaration

All the works are of a purely literary nature and are set on the fictional planet of Abracadabra. It has nothing to do with earthly affairs.

Monday, February 11, 2013

कलकत्ता डायरीज़ (2) / झालमुढ़ी


नोट :- यह कहानी पूरी तरह से कल्पना की उपज है। इसमें प्रयुक्त किये जगहों के नाम और घटनाएं सिर्फ ‘प्लौट’ (कथानक) को  आगे बढ़ाने का काम करते हैं। इसलिए सभी पाठकों से विनम्र निवेदन है की कोई ‘हर्ट’ (चोटिल) ना ‘फ़ील’ (महसूस) करें।


सन्डे का दिन था। दिन भर कमरे में बंद तकिये की ओंठ लगाकर कहानी-लतीफ़े पढ़ते-पढ़ते शाम को सोचा थोड़ा बाहर निकला जाये। शायद लिखने के लिए कुछ मटेरियल मिल जाये। आखिर शहर से गुफ्तगू करने के लिए उसे देखना तो अमूमन ज़रूरी है। कमरे से निकल कर सामने की मोड़ पर 3 रुपये की चाय पीकर आगे बढ़ गया। फिर कुछ खाने का दिल हुआ। दोपहर का खाना यही कोई 2-3 बजे खाया होगा और अब 6 बजने को थे। जेब में टटोला तो दस रुपये के दो-तीन मुड़े-तुड़े नोट और कुछ सिक्के बाहर आये।

कई निचले पायदान पर बौराते परसाईजी के “मध्यम वर्गीय कुत्तों” (वैसे ही “मध्यम वर्गीय कुत्तों” की नस्ल के बारे में कोई भी ‘कन्फर्म’ बात नहीं कर सकता है ऊपर से निचले, मध्य और ऊपरी इकाईयों में इनका विभाजन करने वाली थीसिस तो ऐसे चीज़ों को और गड्डम-गड्ड कर देती है) की तरह मेरे हालात भी माहवारी पर ही पूरी तरह निर्भर थे। ऊपर से बेवजह पुस्तकें पढ़ने जैसा लापरवाह शौक जहाँ ‘इन्वेस्टमेंट’ पर कोई ‘रिटर्न’ (फायदा) नहीं मिलता स्थिति को और भी नाजुक बना देती थी।  
 
सरकारी नौकरी ऊपर से भारी ‘एडुकेशन लोन’ के अनूठे कॉम्बिनेशन के कारण तंग जेब वाली स्थिति सामान्य तौर पर महीने की बीसवीं तारीख तक आती थी। इसका मैंने एक आसान सा समाधान निकाल लिया था जो सौ फ़ीसदी तक सफल रहा था। दो मित्रों से बारी-बारी से और पहले को दूसरे और दूसरे को पहले के बारे में बिना बताये उधार लेने से महीना कट ही जाता था। लेकिन इस बार पुस्तक मेले के कारण दसवीं तारीख तक ही ‘अकाउंट’ खाली तो हो ही गया था साथ में माहवारी उधार का भी कोटा पूरा हो गया था। अब मैं भारत सरकार तो था नहीं की ‘फिस्कल डेफिसिट’ कितनी भी हो जाये कहीं न कहीं से पैसे तो तोड़ ही लिए जायेंगे।

खैर ज्यादा माथा-पच्ची नहीं करनी पड़ी। यह तो तय था की इतने पैसों में पार्क स्ट्रीट या केमैक स्ट्रीट के किसी भी दुकान पर छप्पन भोग तो नहीं ही खाया जा सकता था। चाट या भेल पूरी भी पहुँच से बाहर लग रही थी। गोलगप्पे भी महँगी लग रही थी। ‘विक्टोरिया वडा पाव’ और पाव-भाजी का तो सवाल ही पैदा नहीं होता था।

मैं घूमता रहा। देखता रहा। शायद साथ-साथ सोचता भी रहा। मिडिल्टन स्ट्रीट से नाक की सीध में चलता हुआ जवाहरलाल नेहरु रोड पर पहुँच गया। फिर 90 डिग्री का कोण काटते हुए बाएं तरफ मुड़ गया। वहां जीवन दीप बिल्डिंग के सामने ही सड़क पर नीली पॉलिथीन से ताने हुए कुछ लोगों का घरौंदा था। नया लग रहा था क्योंकि मेरी धूमिल सी होती याददाश्त बताती है की पिछले सप्ताह जब सड़क के दूसरी ओर स्थित एलियट पार्क की ओर जाते वक्त उधर से गुज़रा था, तो घरौंदा वहां नहीं था।

लय को तोड़ने के लिए माफ़ी चाहूँगा लेकिन यह बताना ज़रूरी समझता हूँ की एलियट पार्क मेरे पसंदीदा जगहों में से है। सर्दियों की दोपहरों में पढ़ने और धूप सेंकने के लिए वहां जाता हूँ और असंख्य जोड़ों को चोंच-लड़ाते-कुनमुन-कुनमुन करते देख व्यक्तिगत तौर पर ढलती उम्र का तो अहसास होता ही है लेकिन दार्शनिक तौर पर संतुष्टि भी होती है की धर्म-ज़ात-क्लास-नस्ल-वगैरह-वगैरह के विष-उद्योगों द्वारा फैलाये ज़हर से उभरते तमाम बवंडरों के बावजूद चलो दुनिया में अभी तक सब ठीक-ठाक चल रहा है। कम-से-कम कुछ लोग तो एक-दूसरे से प्रेम कर ही रहे हैं और मेरे ख्याल से जब तक ऐसा होता रहेगा दुनिया चलती रहनी चाहिए।

अब चलिए वापिस आते हैं। घरौंदे के अन्दर और बाहर ज़िन्दगी गुजर-बसर हो रही थी। आकाश में सूरज ढल चुका था सो रात के खाने की जद्दोजहद जारी थी। इतने सारे विरोधाभासों को समेटे हुए उस छोटी-सी भूगोल की परिधि में शायद मैं खोने लगा था। अनायास बढ़ता चला जा रहा था। टाटा सेंटर को पार कर फिर अन्दर वाली सड़क की दिशा में चलने लगा। लेकिन कुछ ‘खाने’ की ज़रुरत जल्द ही मुझे धरातल पर ले आई।

तभी स्टील अथॉरिटी बिल्डिंग के सामने ही झालमुढ़ी बेचने वाले का ख्याल आया। मन खिल उठा। अब तो पक्का हो गया था की कुछ खाने को मिल जायेगा। पीछे मुड़ कर स्टील अथॉरिटी की बिल्डिंग की ओर चलने लगा।

थोड़ी देर में स्टील अथॉरिटी की बिल्डिंग के सामने वाले बस स्टॉप पर पहुँच गया। मैं रोज़ ऑफिस से वापिस आते वक़्त इसी जगह बस से उतरता हूँ। उतर कर कभी-कभार मूँगफली या चने खाते हुए बाकी की दूरी पैदल ही चल कर अपने कमरे तक पहुँचता हूँ। मूँगफली वाले दोने की साइज़ देखकर टकीला शॉट की याद आ जाती थी।

शुरू-शुरू में आया था तो इस तरह रोज़-रोज़ ऑफिस आना-जाना अटपटा सा लगता था। एक अजीब-सा डर लगा रहता था। शायद ऑफिस के माहौल को ‘बर्दाश्त’ करने की कूवत मुझ में थी ही नहीं। ऐसा लगता था रोज़-रोज़ एक ही जगह पर घिसट रहा हूँ, कोई दूरी तय कर ही नहीं पाता था।

कुछ लोगों से मित्रता करने की भी कोशिश की पर शायद ‘एडल्ट्स’ को ‘हैंडल’ करना और उनके साथ ‘बिहेव’ (व्यवहार) करना मैंने सीखा ही नहीं था। एक मित्र ने मुझ से कभी कहा था की कहीं स्वयं मेरे द्वारा ‘जेंडर डिस्क्रिमिनेशन’ (लिंग-भेदभाव) न हो जाये, इसके भय से आक्रांत हो कर मैंने अपने ज़ेहन से ‘जेंडर’ का ‘काउंटर’ (मापदंड) ही हटा दिया है। इस कारण से मैं ‘जेंडर डिस्क्रिमिनेशन’ तो क्या ‘जेंडर डिफ्रेनशिएशन’ (निष्पक्ष स्वाभाविक लिंग भिन्नता) भी करना या मानना भूल गया हूँ। शायद वो ठीक था। यही नहीं मुझे तो अब मालूम पड़ता है की मेरे अन्दर ‘डिफ्रेनशिएशन’ करने वाला किसी भी तरह का ‘काउंटर’ है भी या नहीं। शायद इस कारण से सभी को एक ही कसौटी पर परखने के लिए बाध्य रहता हूँ।

‘जॉब’ में ‘सरवाईव’ करने के लिए एक मित्र द्वारा दिए गए सलाह को मैं बार-बार भूल जाता था। वो कहता था, “दिस इज दी रियल वर्ल्ड, मैन। यू विल नीड टू पुट ए मास्क ओन योर फेस एंड बी थिक स्किन्नड।” (यही असली दुनिया है। तुम्हें अपने चेहरे के ऊपर एक नकाब लगाना होगा और अपनी चमड़ी मोटी करनी होगी।) सलाह मुझे अस्वाभाविक लगी। पर कई बार औंधे मुंह गिरने के बाद उसकी सलाह में छिपा ‘गूढ़ सत्य’ भी समझ में आया। लेकिन इसके बावजूद आज भी उसकी सलाह पर अमल करने की कोशिश नहीं करता हूँ। सोचता हूँ शायद कल से सब कुछ अचानक बदल जायेगा। ऐसा भी लगता है जब आज-तक ऐसा नहीं हुआ तो कल क्यूँकर सब बदल जायेगा। लेकिन खुद पर ‘ऑपटीमिस्ट’ (आशावादी) का तमगा लगाकर दिल को समझा लेता हूँ। 

ओफ्फो! शायद मैं फिर भटक गया था, माफ़ कीजियेगा। चलिए वापिस आ जाते हैं।

स्टील अथॉरिटी की बिल्डिंग के सामने झालमुढ़ी बेचने वाले के रोज़ के यथास्थान पर पहुंचकर निराशा ही हाथ लगी। भाग्य आजमाने के लिए देखते-देखते अमेरिकन सेंटर तक बढ़ गया, फिर वापिस हो लिया। आज झालमुढ़ी बेचने वाले की छुट्टी थी। पेट की भूख न मिटने के कारण हल्की-सी निराशा तो हुई फिर इस बात पर संतोष भी हुआ की चलो वो भी अपने परिवार के साथ छुट्टी का सुख ले कर मज़े कर रहा होगा।

वहां से फिर दूसरी सड़क के कोने पर पहुँच गया। बस स्टॉप से मेरे कमरे तक रास्ते में तीन-चार झालमुढ़ी बेचने वालों की दुकानें होती थी। दुकानें क्या थी, कुछ के तो सिर्फ एक बड़ा सा बक्से जैसा होता था। इसमें कई खाने बने होते थे जिससे थोड़ा-थोड़ा कुछ-कुछ निकाल कर मुढ़ी को स्वादिष्ट बनाया जाता है। लेकिन लो गज़ब की बात हो गयी उस सड़क पर भी आज दुकान नहीं थी।
अब मेरी मध्यम वर्गीय सोच जो ‘कस्टमर सैटिसफैकशन’ से मिलता जुलता है और जो हमें यह सोचने के लिए बाध्य करती है की पूरी जमात सिर्फ हमें ‘सर्व’ (खातिरदारी) करने के लिए है, मुझ पर हावी होने लगी थी। इसलिए शायद थोड़ी झुंझलाहट सी भी होने लगी थी।

लेकिन तभी भटकते-भटकते फिर केमैक स्ट्रीट पर पहुँच गया। कोने पर एक झालमुढ़ी वाले की दुकान दिखी। दूर से ही देखकर तबीयत खुश हो गयी। खाना तो बात बाद की थी। मुसकुराते हुए वहां पहुँच गया। पांच रुपये की झालमुढ़ी बनाने को बोल दुकान को देखने लगा।

हालाँकि दुकान अस्थायी ही थी लेकिन स्थायित्व का पूरा आभास करा रही थी। फुटपाथ के एक कोने पर टीन के कई कनस्तर कतार में लगे हुए थे। दूसरे झालमुढ़ी की दुकानों की अपेक्षा ये ज्यादा ‘समृद्ध’ लग रही थी। दीवार पर कृष्ण और पता नहीं पर शायद लक्ष्मी-विष्णु के कैलेण्डर लगे थे। कृष्ण वाले कैलेण्डर पर गेंदा के पीले फूलों की माला थी जो शाम होते-होते मुरझा गयी थी। किरासन तेल के सहारे जलते दिये से हल्की-हल्की रौशनी दीप्त हो रही थी। हालाँकि ऐसा लगता था की सड़क किनारे जलते बल्ब से पर्याप्त रौशनी आ रही थी फिर दिए की क्या ज़रुरत थी। मैंने दिमाग लगाने की कोशिश की।

इधर मैं देख-सोच रहा था और उधर मुढ़ी तैयार होने की प्रक्रिया जारी थी। एक बड़े से खोमचे से गिन कर तीन मुट्ठी मुढ़ी निकाला और मिलाने वाले डिब्बे में डाल दिया। मूँगफली को हाथ से दबाकर उसके ऊपर वाली लाल रंग की परत को हटा कर डिब्बे में डाला, फिर थोड़े से चने, थोड़ा सा आलू, एक चम्मच नमक-मिर्च-वगैरह, थोड़ा सा सरसों का तेल और फिर क्या था, जब तक दिमाग पर लगाम लगा पता स्वादिष्ट मुढ़ी हाज़िर थी मेरा भोजन बनने के लिए।

उसने डिब्बे से तैयार मुढ़ी को निकाल कागज़ के एक दोने में भर दिया। मैंने पिछली जेब से पांच रुपये का नया सिक्का उसकी हथेली पर रख दिया। मुढ़ी का दोना मेरे हाथों में था।

पहला कौर मुंह में डाला। असीम आनंद की प्राप्ति हुई। साथ ही साथ पूंजीपतियों की दलाली करने वाले बुद्धिजीवी और अर्थशास्त्रियों की खाल पहने खुद को शेर समझने वाले अव्वल दर्जे के गधों द्वारा गरीबी रेखा के सन्दर्भ में होने वाली ‘न्यूज़-डिबेट’ में दिए गए ‘फंडों’ वाली बात याद आ गयी। अब मुझे समझ में आया। सभी ईमानदार लोग हैं। शायद उन्होंने कभी कलकत्ते की मुढ़ी खायी होगी। ‘इम्प्रेस’ होकर सोच लिया होगा की लोग दिन भर सिर्फ मुढ़ी खाकर ही रह लेंगे। जो मुढ़ी भी नहीं खा सकते सिर्फ उन्हीं की गिनती ग़रीबों में होनी चाहिए।

धीरे-धीरे मुढ़ी खाते हुए वापिस अपने कमरे की ओर जाने लगा। कमरे पर पहुँच, कुर्सी पर बैठ कर बड़े चाव से रस लेकर खाया। फिर हाथ धोया, पानी पिया, अगरबत्ती जलाई। कम्प्यूटर को ऑन किया। अगरबत्ती की महक कमरे में फैलने लगी। माहौल बनने लगा। दिमागी जुगाली शुरू हो गयी। थोड़ी देर में शब्द स्क्रीन पर उभरने लगे। सन्डे का दिन था।........

(MJ - Feb-2013)