Declaration

All the works are of a purely literary nature and are set on the fictional planet of Abracadabra. It has nothing to do with earthly affairs.

Sunday, July 17, 2011

सुख

संडे की शाम. नई किताबों का बंडल दबाए एक मित्र के साथ वापिस पुराने गलियारे में पहुंचा.गलियारे का नाम जलाने वि. (जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय) था. इस गलियारे में जितने बार भी जाओ मन नहीं भरता. ऐसा लगता है की माँ का आँचल हो और जब भी बाहर की दुनिया से त्रस्त हो जाओ तो माँ के आँचल में आकर मुंह छुपा सकते हो. माँ कुछ नहीं बोलती, कोई सवाल नहीं पूछती, सिर्फ अपने आँचल में छिपा लेती है, दुनिया की पैनी आँखों से दूर कर लेती है.

संडे की शाम और फिर से माँ का आँचल. थोड़ी देर हम सड़क पर टहलते रहे. फिर अंदर ही फैले छोटे से मार्केट की ओर गए. मित्र साहब को पतलून सिलवानी थी. सो दर्जी की ओर हो लिए. दर्जी की दुकान पर ही दो महाशय और मिल गए. हल्की-हल्की बारिश होने लगी. हम अब पास की हलवाई की दुकान पर बैठ गए. बारिश तेज हो गयी. हमने कुछ जलेबी, समोसे और चाय का आर्डर दिया. चाय की चुस्की चल रही थी. चेहरे को बारिश की फुहारें चूम रही थी. सहनशील मीठे चुम्बन जिसमे कोई तपिश न हो सिर्फ असीम शीतलता. अगल-बगल का मौसम शांत लग रहा था. थोड़े देर के लिए भूल गया सभी कुछ. अपने आपको, अपने चारों तरफ खड़े लोगों को. कम्युनिज्म, डेमोक्रसी, टेररिज्म, गरीबी, मानवतावाद , फिलासफी, पॉलिटिक्स, समाजवाद, न जाने कितने ही मुद्दों पर गहमा गहमी होती रहती है इस छोटे से मानस पटल पर. लेकिन उस थोड़ी देर के लिए ऐसा मालूम हो रहा था जैसे समय ठहर सा गया हो. या फिर मैं समय की तरह बहने लगा हूँ. कोई चिंता या चिंतन का विषय शेष न रह गया हो. बस मैं था बस मैं था.

शायद इसी को सुख कहते हैं. क्षण बार की अनुभूति जब अभिव्यक्ति की जरूरत न हो.

पता नहीं फिर कब माँ की गोद में सोने का सुख प्राप्त हो. या खानाबदोशों की तरह ऐसे ही जिंदगी भटकाती रहेगी. शायद मैं भी समय बन जाऊंगा. हाशिए पर खड़े रह इस जादूगरी दुनिया के तिलिस्म को समझने की कोशिश करता रहूँगा, तब तक जब तक की तिलिस्म ही न टूट जाये या मैं अपने सारे बंधनों को तोड़ इसी मिटटी में न मिल जाऊं.

क्षण तुम्हारा इंतज़ार करूँगा.