मेज़ पर रखा गुलदस्ता मुरझा सा गया है
गुलदस्ते में कुछ फूल रखे हैं
पहले दिन खिले थे अब मुरझा गएँ हैं
उनकी कुम्हलाहट मेरी मासूमियत की तरह कहीं खो गयी है
उनको छूकर मैं देखता हूँ
बातें करता हूँ बदहवास सा बौखलाया हुआ
अपनी तन्हाई मिटाता हूँ
मन को शांत करने की असफल कोशिश करता हूँ
आज एक अजीब सा सन्नाटा छाया है
अट्रियम की छत से धूप छन कर आ रही थी
कम्प्यूटर के पीछे हरी हरी बत्तियां टिमटिमा रही थी
उस लम्बे इंतज़ार के बाद पैरों में हल्का दर्द सा महसूस हो रहा था
पर क्या इस दर्द की कोई अहमियत थी
इस दुनिया में जहाँ प्रतिस्पर्धा ही एकमात्र सत्य है
प्रतिस्पर्धा जो इन्सान को कुत्ता बनाने पर अड़ गया है
एक ऐसी भूख जगा रहा जो सब कुछ खाने पर विवश कर रहा है
संकीर्णता की चारदीवारी में कैद कर रहा है
अब फूल नहीं मुस्कुराएँगें
बसंत भी सो जायेगा हमेशा के लिए
शिशिर का मौसम ही चलता रहेगा
लेकिन नहीं अभी उम्मीद की किरण बची है
एक ऐसे इन्सान की कल्पना
जो प्रतिस्पर्धा नहीं प्रेम का गीत गायेगा
प्रस्फुटित फूल की तरह अपनी खुशबू बिखेरेगा
इन्सान की भूख को वश में कर उसे प्रेम करना सिखाएगा
और तब बसंत फिर आएगा
अपनी कोमल सी चादर बिछाएगा
और इन्सान छोटे बच्चों की तरह उसमे सो जाएगा
फूल खिलेंगे दिल झूम उठेंगे मन गा उठेंगे
और तब मैं भी खो जाऊंगा उस बहार में
मुस्कुराते हुए