Declaration

All the works are of a purely literary nature and are set on the fictional planet of Abracadabra. It has nothing to do with earthly affairs.

Sunday, September 25, 2011

कलकत्ता डायरीज़-1


विक्टोरिया मेमोरियल की ओर
दिन भर चारदीवारी में बंद घुटन से राहत पाने के लिए शाम को बाहर निकला। सामने ही एलियट पार्क है। उधर की ही तरफ हो लिए। कई जोड़ों को साथ देख कर लगा चलो दुनिया अभी भी ठीक ठाक चल रही है। जीवन की इस आपाधापी के बावजूद समय निकल जा रहा है कुछ वक्त यूँ ही बिताने के लिए। कोई जोड़ा हाथ थामे चल रहा  हैं। कोई किसी पर सर टिकाये हुए है। कोई कंधे पर हाथ रखे चल रहा  है। कुछ दीवार पर बैठें हैं। कुछ नीचे बस स्टैंड पर। कुछ बोल रहे हैं धीमे धीमे। कुछ खामोश बैठे हैं। इन सभी को पार कर  मेमोरियल की तरफ चलने लगा। फुटपाथ पर चलते चलते अनायास ही कई ख्याल इधर उधर तैरने लगे। बाहर निकला था की सोचना न पड़े। पर ये दिमाग साथ छोड़ता ही कहाँ है। कुछ देर भटकने के बाद दिमाग फिर तंग करने लगा। हाँ उसकी टीस गहरी नहीं थी। मखमली थी। मैं सारे नज़ारे को देख मन ही मन मुस्कुरा रहा था। फुटपाथ पर भी जिंदगी बसती है। सामने विक्टोरिया का बड़ा सा स्मारक। न जाने कितने पैसे खर्च हुए होंगे इसे बनाने में। ऊँची-ऊँची बत्तियों के दुधिया प्रकाश में  चमचमाता स्मारक और सामने फुटपाथ पर मिट्टी के तेल से जलते कई दिए। विक्टोरिया महारानी तो कब की चल गयी। अंग्रेजी हुकूमत का सूरज भी डूब गया पर यहाँ तो विक्टोरिया का रुतबा अब भी बरक़रार है। उसी के सहारे कितनों के पेट पल रहे होंगे।

फुटपाथ पर ही चूल्हा जल रहा था। रोटियां तवे पर चढ़ रही थी सिंक रही थी उतर रही थी। बर्तन धुल रहे थे। थोड़ा गौर से देखा। लोहें की रेलिंग पर कपडे टंगे हैं। कुछ बर्तन भी टंगे हैं। बहुत सा सामान भी पड़ा है। लगता था पूरा घर ही है । हाँ सचमुच पूरा घर ही था। कितनी अजीब है ये दुनिया। जो विक्टोरिया सात समंदर पार  कब की कब्र में गल कर मिट्टी में मिल गयी होगी उसके लिए इतना ताम-झाम और इतने सारों की कोई परवाह नहीं। इस बात पर बेतहाशा हंसी आती है जब लोग इस दुनिया की परवाह करते हैं और खासकर भगवान नाम की माया को। लगता है इन लोगों का भगवान भी इनकी तरह हाशिए पर है।

सामने सड़क पर कई बग्घियाँ खड़ी थी। पालों में घोड़े बंधे थे। जहाँ तहां घोड़े की लीद बिखरी थी जिसकी  गंध आने-जाने वालों की गंध से मिल अजीब सा मिश्रण बना रही थी। एक घोड़े का नन्हा सा बच्चा दिखा । लग रहा था कुछ ही दिनों पहले इस दुनिया में आया है। बेचारा एक पेड़ से बंधा था। इस के लिए तो पूरी जिंदगी पहले से ही तय है। मन में एक गहरा सा भय आया । अंदर ही अंदर झकझोर गया। क्या इंसान भी घोड़े जैसा नहीं है? उस घोड़े के गले में तो एक ही रस्सी थी पर इंसान को तो असंख्य रस्सियाँ बांधे रहती है। कोख से निकलने से पहले ही तय होता है उसका धर्मं उसकी जात। उसका परिवार उसका क्लास उसका स्टेटस। वगैरह-वगैरह। आखिरकार कितनी रस्सियों को तोड़ेगा इंसान। थक हार कर अपनी ही रस्सी के फंदे में फंस जाता है एक दिन।

कितनी अजीब बात है। सब तय रहने के बाद भी इंसान कोशिश करता है। बेचारे सिसिफियस की याद आ जाती है। उसपर एक श्राप है। वह एक भरी भरकम चट्टान को बड़ी मुश्किल से ऊपर लेकर जाता है। नथुने फूलने लग जाते हैं शरीर अकड़ जाता है। ऊपर पहुंचते- पहुंचते थक कर चूर हो जाता है। पर ऊपर पहुँचते ही चट्टान लुढक कर नीचे पहुँच जाता है। वह फिर नीचे जाता है। फिर ऊपर जाता है और उसकी जिन्दगीं में बस यही चलता रहता है।

चलते चलते मैदान के दूसरे तरफ पहुँच गया। यहाँ थोड़ी शांति थी। हवा भी अच्छी चल रही थी। बाहें फैला उस हवा को पकड़ने लगा सिसिफियस की तरह। बग्घियाँ सड़क पर दौड़ रही थी। कुछ में बच्चे बैठे थे अपने माता-पिता के साथ। कुछ में जोड़े बैठे थे। अपने आसपास के जीवन की ध्वनि से महरूम घोड़े की चाल और बग्घियों की टक-टक के तिलिस्म में खोये हुए सभी खुश थे शायद। शायद।

अँधियारा बढ़ रहा था। वापस अपने कमरे की ओर चल पड़ा। फिर वही एलियट पार्क। फिर वही असंख्य जोड़े। इन को खुश देख कर लगा मैं खामख्वाह ही घबरा रहा था। दुनिया उतनी भी बुरी नहीं है और ऊपर से हम तो इंसान हैं।

थोड़ी  देर बाद अपने आशियाने में था। उनके घर वहीँ छूट गए। कमरे में बैठ लिखने लगा। शायद मैं भी सिसिफियस बन गया हूँ। पर इंसान ही तो हूँ। तो कोशिश कैसे छोड़ सकता हूँ। 

Sunday, July 17, 2011

सुख

संडे की शाम. नई किताबों का बंडल दबाए एक मित्र के साथ वापिस पुराने गलियारे में पहुंचा.गलियारे का नाम जलाने वि. (जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय) था. इस गलियारे में जितने बार भी जाओ मन नहीं भरता. ऐसा लगता है की माँ का आँचल हो और जब भी बाहर की दुनिया से त्रस्त हो जाओ तो माँ के आँचल में आकर मुंह छुपा सकते हो. माँ कुछ नहीं बोलती, कोई सवाल नहीं पूछती, सिर्फ अपने आँचल में छिपा लेती है, दुनिया की पैनी आँखों से दूर कर लेती है.

संडे की शाम और फिर से माँ का आँचल. थोड़ी देर हम सड़क पर टहलते रहे. फिर अंदर ही फैले छोटे से मार्केट की ओर गए. मित्र साहब को पतलून सिलवानी थी. सो दर्जी की ओर हो लिए. दर्जी की दुकान पर ही दो महाशय और मिल गए. हल्की-हल्की बारिश होने लगी. हम अब पास की हलवाई की दुकान पर बैठ गए. बारिश तेज हो गयी. हमने कुछ जलेबी, समोसे और चाय का आर्डर दिया. चाय की चुस्की चल रही थी. चेहरे को बारिश की फुहारें चूम रही थी. सहनशील मीठे चुम्बन जिसमे कोई तपिश न हो सिर्फ असीम शीतलता. अगल-बगल का मौसम शांत लग रहा था. थोड़े देर के लिए भूल गया सभी कुछ. अपने आपको, अपने चारों तरफ खड़े लोगों को. कम्युनिज्म, डेमोक्रसी, टेररिज्म, गरीबी, मानवतावाद , फिलासफी, पॉलिटिक्स, समाजवाद, न जाने कितने ही मुद्दों पर गहमा गहमी होती रहती है इस छोटे से मानस पटल पर. लेकिन उस थोड़ी देर के लिए ऐसा मालूम हो रहा था जैसे समय ठहर सा गया हो. या फिर मैं समय की तरह बहने लगा हूँ. कोई चिंता या चिंतन का विषय शेष न रह गया हो. बस मैं था बस मैं था.

शायद इसी को सुख कहते हैं. क्षण बार की अनुभूति जब अभिव्यक्ति की जरूरत न हो.

पता नहीं फिर कब माँ की गोद में सोने का सुख प्राप्त हो. या खानाबदोशों की तरह ऐसे ही जिंदगी भटकाती रहेगी. शायद मैं भी समय बन जाऊंगा. हाशिए पर खड़े रह इस जादूगरी दुनिया के तिलिस्म को समझने की कोशिश करता रहूँगा, तब तक जब तक की तिलिस्म ही न टूट जाये या मैं अपने सारे बंधनों को तोड़ इसी मिटटी में न मिल जाऊं.

क्षण तुम्हारा इंतज़ार करूँगा.

Monday, June 6, 2011

Seriously M

Finally out of abracadabra, the cynical fool (later abbreviated as cf for in this era of quickies where you take it out, shove it in, puke inside and rush to the assembly line, time and space both are at a premium) wanted to be serious in life. And he stepped into something which was called as the ‘real world’ (which was also supposedly more serious than abracadabra) by certain very ‘smart people’. The cf wanted to call that world fantasmagoristan or at least the ‘The Garden of Earthly Delights’. I corrected or egged him to call it automatonistan. (Long ago, if his memory served right the cf had heard of a country called hindostan).

Now it was the first day of the cf at what very serious people call a job. Cf tried killing time by engaging in verbal intercourse with fellow automatons. Later the fellow automatons wanted to satisfy one of their animal instincts (eat). The big M was just down there. Not the big mama silly but the one responsible for pigging (euphemistically called fattening and mind you I do not mean any offence to people challenged by weighing scales) populations across planets. The big M had originated from the darling planet of serious people, a land beset by the heaviest. Euphemistically many called it as the Planet of States. Now leaving the verbiage aside, let us turn to the actual scene.

The big M was filled to the brim with automatons, automatons of all sexes (I hate bifurcating automatons just on the basis of what shows up inside their pants), automatons of many classes (strictly not all), automatons of all age groups (now do not ask me if I included infants). There were automatons who thought themselves to be sophisticated and as a proof strangled their necks with a piece of clothing resembling what many virile among the automatons refer to as the weapon, though a little longer (as if one was out fighting a war with their partner but oxymoronically called it making love). Among the sophisticated ones many were garbed in sweaty suits as well. And they thought themselves as super intelligent.

And then there were those referred to as the fairer sex who were trying to act dainty. (They were not even able to use their hands properly. It seemed they thought themselves to be sparrows and thus were pecking at their foods). And there were those whom summer had given the excuse to reveal more than they could hide. Cf did not want to give a damn even if they chose to forget covering what again some serious people referred to as assets. He particularly disliked the furniture at the big M and when they spread their bottoms on those chairs, the sight seemed ghastly to cf’s idea of aesthetics. Reams were consigned to print discussing the rear of somebody by the name of Pippa Middleton. Cf thought he would get to appreciate or write paeans on the rear view but it was an aesthetic disaster.

And there were overblown kid automatons as well. And these kinds were there with their guardian automatons. But I think my heart definitely sank when I saw two little kids being fed burgers for lunch by their seemingly nouve middle class parents. They did not seem to be rich, just what again the serious people call as the middle class. Cf thought (even he could think) how would their taste buds develop if they are being pigged on a diet served by the big M.

It seemed the big M was losing its plot in the country of its origin and wanted to explore new markets. (by the way markets was a much over-used term in abracadabra and stuff like market access were used profusely but rarely appreciated what it meant for the population in those areas). And automatonistan with its new found confidence of being a superpower (one of the greatest fibs doing the rounds in automatonistan and used in the many of analyses in abracadabras across the planet and jargonized as 'PEST') seemed a perfect place. These pumpkins had been ruled by the inhabitants of an island who would have drowned in the piss of those they oppressed.

Across the glass of the big M, lay a tree. A woman was sleeping. And her children seemed to looks for little crumbs from those stuffing themselves at big M. And Cf seemed dangerously close to practicing what somebody had called champagne socialism. So after spitting some verbiage, he just sat there observing rather nonchalantly. He considered himself fortunate to isolate his own self in the automaton crowd and not to be rubbed by notions of decency and airiness.

And thus the day ended after killing some more time. It was Don Rigoberto all in the head though the fantasies lacked his imaginative depth. Llossa must have laughed himself hoarse.

Monday, February 21, 2011

एक तमन्ना

ये पत्तियां कब हरी होगी
मेज़ पर रखा गुलदस्ता मुरझा सा गया है
गुलदस्ते में कुछ फूल रखे हैं
पहले दिन खिले थे अब मुरझा गएँ हैं
उनकी कुम्हलाहट मेरी मासूमियत की तरह कहीं खो गयी है
उनको छूकर मैं देखता हूँ
बातें करता हूँ बदहवास सा बौखलाया हुआ
अपनी तन्हाई मिटाता हूँ
मन को शांत करने की असफल कोशिश करता हूँ
आज एक अजीब सा सन्नाटा छाया है
ट्रियम की छत से धूप छन कर आ रही थी
कम्प्यूटर के पीछे हरी हरी बत्तियां टिमटिमा रही थी
उस लम्बे इंतज़ार के बाद पैरों में हल्का दर्द सा महसूस हो रहा था
पर क्या इस दर्द की कोई अहमियत थी
इस दुनिया में जहाँ प्रतिस्पर्धा ही एकमात्र सत्य है
प्रतिस्पर्धा जो इन्सान को कुत्ता बनाने पर अड़ गया है
एक ऐसी भूख जगा रहा जो सब कुछ खाने पर विवश कर रहा है
संकीर्णता की चारदीवारी में कैद कर रहा है

अब फूल नहीं मुस्कुराएँगें
बसंत भी सो जायेगा हमेशा के लिए
शिशिर का मौसम ही चलता रहेगा
लेकिन नहीं अभी उम्मीद की किरण बची है
एक ऐसे इन्सान की कल्पना
जो प्रतिस्पर्धा नहीं प्रेम का गीत गायेगा
प्रस्फुटित फूल की तरह अपनी खुशबू बिखेरेगा
इन्सान की भूख को वश में कर उसे प्रेम करना सिखाएगा
और तब बसंत फिर आएगा
अपनी कोमल सी चादर बिछाएगा
और इन्सान छोटे बच्चों की तरह उसमे सो जाएगा
फूल खिलेंगे दिल झूम उठेंगे मन गा उठेंगे
और तब मैं भी खो जाऊंगा उस बहार में
मुस्कुराते हुए

Tuesday, January 25, 2011

abracadabra

It was the end of the day. The big amphitheater was empty in most parts. Only a few natives of abracadabra could be seen here and there. Most were stuck to a device relaying messages to their someone. The place was getting cleaned up as the bouts had finished. The gladiators were already crowned. It had been a big day in abracadabra. Much frantic activity had preceded the D-day. And now the day was behind the backs of its inhabitants. That evil bastard called time had crossed to the other side leaving indelible memories. Cruel for some but definitely kind for many.

And now there was this narcissistic bastard. Time had stopped for him. And he seemed to be frozen. But why was this bastard smiling. Hey! look properly. This bastard was laughing loudly. Bloody has no shame, I guess. Some people were trying to lift up the spirits. Some asking strange questions but he seemed to be somewhat heart-broken when people did not even care to take a few chocolates from him. Must have thought that without anything to support him, he would run a debt and leave the scene.

Even after the world has collapsed right under his eyes, look at the airs he put on. This bastard was a freak of sorts. He believed in something called as methodology. He believed that circumstances could be controlled by the natives of abracadabra or any other planet. He believed that if you plan everything then things would fall in place. He believed that he could control destiny.

And now he had lost the battle with time. He was particularly afraid of one thing now. On planet earth, it was referred to as a placard. And now even the very mention of that word gave him goose bumps. He was disgusted to see them. An eerie sense of discomfort would spread around whenever he saw one now.

And now what? It is pay-time. Death was certain. Someone must die. But who? Should the idea die or the person? And how? And it was a pertinent question. Even now this bastard does not stop asking questions.

Everyone thought that the world had changed and the narcissist was still caught in a time warp. And thus came the verdict, “Both must die”. One for preaching a corrupt idea and the corrupt idea itself. They were lined up and hanged till death. Or so everyone thought. They all rejoiced that night; the inhabitants of abracadabra celebrated the deaths with merrymaking on a grand scale. Deaths and celebration, deathly celebration. And for them, thus came the demise of a self. Demise of a certain anachronistic school of thought. Disintegration, decay, destruction, demise, drama and placard and placard and placard and placard. And then appears the ultimate sweetener: death and finality.

The narcissist when in the throes of death though feeling immeasurable pain, laughed and laughed and laughed even when he was crying profusely from inside. But he believed he would rise again like a phoenix, somewhere someday, but nobody may know. Nobody would care, for the world would have had moved on.